लघुकथा – सुकून की महक
का जा समाचार थे- पिछले 12 दिनों से 5 डिग्री से कम तापमान दिल्ली में चल रहा है. एक व्यक्ति अपनी कार से कुछ सफेद-सा दिखाते हुए चिल्ला रहा है- दिल्ली में हिमपात हो गया. शिमला में -17 डिग्री तापमान! तो क्या हिमयुग आ गया है? एक संदेश आया-
”दिये जलाने की रस्म अब पुरानी हो गई,
एक दूसरे को जलाना पसंद करते हैं अब लोग.”
जाने कैसे ये लोग ऐसा संदेश भेज सकते हैं! क्या इनकी जिंदगी में मुस्कुराने का एक भी पल नहीं आया, जो इनके मन को महका सके? यादों ने अंगड़ाई ली. जा पहुंचा 1980 में.
उन दिनों टी.व्ही. पर रविवार को पिक्चर आया करती थी. टी.व्ही. तो सबके पास था, पर श्वेत श्याम और छोटा. रविकांत का घर भले ही छोटा था, पर उसके पास टी.व्ही. रंगीन था और बड़ा भी. तदनुसार उसका दिल भी बड़ा यानी नेक था. रविवार को आसपास रहने वाले उसके सब भाई उसके यहां फिल्म देखने के लिए एकत्रित होते थे.
”तिवानी यार! तू भी आ जाना ना, बड़ा मजा आएगा. बच्चे भी बहुत खुश हो जाएंगे.” पतिदेव से उसका स्नेह-सिक्त निहोरा होता था. उसके इस भावभीने निमंत्रण को स्वीकार न करने का तब कोई बहाना नहीं चलता था.
ऑफिस में कार्यरत रविकांत की पत्नी तो किचिन से बाहर निकल ही नहीं पाती थी, क्योंकि इतने लोगों के लिए शानदार-लज़ीज डिनर जो बनाना होता था. रविकांत सबकी सुविधा का ध्यान रखते हुए खुद ऐसी जगह बैठकर फिल्म देखता था, जहां कोई नहीं बैठना चाहता था. बड़े अंतराल में डिनर शुरु हो जाता था. रविकांत सबको प्यार से खाना खिलाता. फिल्म खत्म हो जाने पर आसपास के लोग तो घर चले जाते, दूर रहने के कारण हमें वह इतनी रात को घर नहीं जाने देता. सबको सुविधाजनक बिस्तर पर सुलाकर वह बहुत बड़ा व्यवसायी दूसरे दिन अपने व्यवसाय के लिए तन को तैयार करने के लिए डाइनिंग टेबिल के नीचे सुकून से सो जाता.
यादों की अंगड़ाई अब भी उसके सुकून की महक से सुवासित है.
रविकांत जैसे लोगों को भुलाना मुश्किल हो जाता है. आज के युग में जब भी मानवीय संवेदनाओं के अभाव की बात होती है, रविकांत बहुत याद आते हैं.