गंगा की व्यथा
निकलती हूँ मैं जब शिवजी की जटा से
स्वच्छ,निर्मल और स्फटिक जल लेकर,
हो जाता स्वस्थ,दुर्बल,अस्वस्थ मनुष्य
मेरे अति गुण वर्धक निर्मल नीर पीकर।
कल कल ध्वनि गुंजित करता नीर मेरा
निकलता सौंदर्य की छंटा बिखेर कर,
निश्छल, निष्कपट बहता जाता नीर
गंगोत्री की पावन धरती को चूमकर।
वहीं स्वच्छ जल जब बहके गुजरता
मानव कोलाहल के बीच से होकर,
मैला हो जाता तन मेरा, सभी प्राणियों
के नित नए अनंत पापों को धोकर।
कभी कोई बहाता मृत मवेशियों को
कभी कोई मानव के शव बहाते,
कोई फेंकता कचरे का ढेर मुझ पर
बीते गये वर्षों यह अत्याचार सहते।
कभी कोई बहाता मुझ में मूर्तियाँ
पूजा संपन्न हो जाने के पश्चात,
रंगों के साथ घुला होता रसायन
जो पहुंचाता मुझे नित नित आघात।
बहाता मानव गंदे पानी की नालियाँ
चारों ओर से प्रतिदिन मेरे ह्रदय पर,
घुलता है मेरे जल में विषाक्त पदार्थ
जल प्राणियों के लिए है यह कष्टकर।
सब को रोग मुक्त करने की होती थी
कभी मेरे जल में अशेष क्षमता,
आज वही जल पीकर सभी हो रहे
रोग से पीड़ित व बढ़ रही अक्षमता।
मेरे जल में करते हैं अब निवास
असंख्य रोगों के, असंख्य विषाणु,
पीकर अशुद्ध जल मेरा हो जाता
पीड़ित, कोई मानव या हो कोई धेनु।
कभी मैं पूजी जाती थी मर्त्यलोक में
पुण्य,पावन, माँ गंगा के रूप में,
आज वही गंगा जग में निंदनीय है
अशुद्ध जल और अपवित्र स्वरूप में।
दिन प्रतिदिन छोटी होती जा रही है
मेरी अप्रतिम,अद्वितीय, सुंदर काया,
मानव के स्वार्थ, लोभ, लोलुपता ने
मेरे सौंदर्य,प्रसिद्धि को ठेस पहुंचाया।
मैं कहाँ किसके पास जाकर अपनी
दुख,अन्याय,अत्याचार की कथा सुनाऊं,
किसके द्वार जाकर अपने हृदय में
पल रहे अनवरत, अनंत व्यथा गाऊं।
अभी समय है मेरे उपचार के लिए
मानव तुम एक बार कर लो चिंतन
मेरे हृदय में चुभे मैल- शूल निकाल फेंको
करना पड़े चाहे पुनः एकबार सागर मंथन।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।