मासूम परिंदे
कहीं कुछ चटका
शायद दिल का शीशा
देखा जब
कचड़ा बिनते बचपन।
कहीं कुछ टूटा
शायद मन का तार
पाया जब
चिथड़ों में लिपटा अल्हड़पन।
कहीं कुछ भीगी
शायद नैनों की कोरें
निहारा जब
चिथड़ों से झांकती जवानी।
कहीं कुछ झुकी
शायद मेरी पलकें
पाया जब
भूखी नजरों का सूखता हया का पानी।
कहीं कुछ टपकी
शायद जख्मी ह्रदय से
रिसकर कुछ रक्त की बूंदे।
देखा जब
उड़ने को बेताब
कुछ पर कटे हुए मासूम परिंदे।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।