कविता

मासूम परिंदे

कहीं कुछ चटका
शायद दिल का शीशा
देखा जब
कचड़ा बिनते बचपन।
कहीं कुछ टूटा
शायद मन का तार
पाया जब
चिथड़ों में लिपटा अल्हड़पन।
कहीं कुछ भीगी
शायद नैनों की कोरें
निहारा जब
चिथड़ों से झांकती जवानी।
कहीं कुछ झुकी
शायद मेरी पलकें
पाया जब
भूखी नजरों का सूखता हया का पानी।
कहीं कुछ टपकी
शायद जख्मी ह्रदय से
रिसकर कुछ रक्त की बूंदे।
देखा जब
उड़ने को बेताब
कुछ पर कटे हुए मासूम परिंदे।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]