कविता
बर्षो से लिखती ज़ा रही हूँ
कभी रुकती फिर चलती
यही क्रम बनता फिर पारी
मानो खुशी भरी सी क्यारी.
तन्हा कर देते हैं बिखरे पेज़
सम्भालू ,टैग में लायूं करीने
समेट रही हूँ, सहेज़ में ज़ारी
घर की हर
बिखरी लिखत को
अनयास ही पढ़ती रूकती खोल
उस पल को हो जाती हूँ जब
मशबीरा मिला था विद्बान का
जो मन के कोने में धरोहर मान
सम्भाला मान और सम्मान सा.
कड़ी मेहनत बाद भी जब उन पन्नों
को चुन अपना मनमीत मानती हूँ
बरक जीस्त भर उठा नहीं पाई
पड़े कौने में भूले और अनछुए से
लगा उनको अब दीमक चाट धीमे से.
अब वो पल बिना प्रशंसा के दूर आई
अपनी चाहों में कमी दृढ़ता दिखाई.
समझौता मेरी आदत कमी जान-सुनी
यही ले रेखा विषय सिंच रही मुस्काई.
— रेखा मोहन