भारतीय गणतंत्र के निर्माण में महिलाओं की भूमिका
गणतंत्र भारत के निवासी होने के कारण हमें कर्म और अभिव्यक्ति की आजादी प्राप्त है। पर इस आजादी के लिए हमारे पुरखों ने मूल्य चुकाया है। अंग्रेजों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई में पुरुषों के साथ ही महिलाओं ने भी सक्रिय भाग लिया और स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति दी थी। यह उनके देश प्रेम का परिचायक तो था ही साथ ही उनकी सामाजिक-राजनीतिक चेतना का प्रखर स्वर भी था। भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास के गगन में अनेक महिलाओं के नाम देदीप्यमान हैं। आजाद हिन्द फौज की महिला पल्टन की सशस्त्र वीरांगनाएं हों, क्रान्किारियों की सतत् सहायता करने वाली वीर बालाएँ हों या फिर राजनीति के माध्यम से समाज जागरण का शंखनाद करने का महत्वपूर्ण काम, वह हर कहीं सफल रही है और अपनी छाप छोड़ी है। अपने शौर्य, मेधा, कर्मठता और चातुर्य से भारतीय गणतंत्र के निर्माण में महिलाओं का योगदान वरेण्य है।
‘मैं कित्तूर नहीं दूँगी‘ का उद्घोष करने वाली कित्तूर की रानी चेन्नम्मा का नाम बड़े आदर और सम्मान से लिया जाता है। कर्नाटक के कित्तूर में सन् 1778 ई. में जन्मी चेन्नम्मा ने बचपन से युद्ध संचालन सीखा था। संस्कृत, मराठी और कन्नड में पारंगत चेन्नम्मा का विवाह दक्षिण भारत के समृद्ध राज्य कित्तूर के राजा मल्लसर्ज के साथ हुआ। राजा निःसंतान स्वर्ग सिधार गये। अंग्रेजों ने राज्य को हड़पने के लिए रानी को राज्य छोड़कर जाने का आदेश दिया। रानी नहीं मानीं। फलतः सितम्बर 1824 ई. में धारवाड़ के कलेक्टर थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ किले को घेर लिया। भयंकर युद्ध में रानी पकड़ी गईं और जेल में डाल भीषण यातनाएं दी गईं और वहीं 21 फरवरी को 1825 ई. को रानी के प्राण-पखेरू उड़ गये। 19.11.1835 को जन्मी मनु को एक दिन इतिहास रानी लक्ष्मीबाई के रूप में याद रखेगा, कौन जानता था। झाँसी के राजा गंगाधर राव से विवाह हुआ पर वह लक्ष्मीबाई को निःसंतान अकेला छोडकर चल बसे। 1854 ई. को अंगेे्रज अधिकारियों के रानी को झाँसी छोड़ देने का हुक्म के जवाब में रानी ने दृढता से कहा, ‘‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।’’ अंग्रेजों को तो बहाना चाहिए था। युद्ध प्रारम्भ हुआ। रानी बड़ी वीरता से लड़ रहीं थीं। लेकिन एक सैनिक द्वारा लालचवश किले का द्वार खोल देने के कारण रानी को किला छोड़ना पड़ा। अंग्रेजी सेना ने रानी का पीछा किया। कालपी और ग्वालियर में आमने-सामने भयंकर युद्ध हुआ। घायल रानी अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बाँधे, घोड़े की लगाम मुँह में पकड़े, दोनों हाथों से तलवार चलाती अंगे्रज सैनिकों को मारती-चीरती रास्ता बनाती आगे बढ़ती जा रही थीं। घायल अवस्था में बाबा गंगादास की कुटी में आश्रय लिया और वहीं प्राण निकल गये। वह कुटी रानी की अन्त्येष्टि की समिधा बन जलकर देशप्रेमियों के लिए पावन हो गई। रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल 1830 ई. को जन्मी झलकारी का विवाह रानी लक्ष्मीबाई के तोपची पूरन सिंह के साथ हुआ था। प्रारम्भिक जीवन जंगल में बीता, इस कारण धीरता, वीरता और चपलता के गुण उसे प्रकृति के सान्निध्य में ही मिल गये थे। रानी जब अंग्रेजों द्वारा किले में घेर ली गई तो झलकारी बाई रानी के वस्त्र धारण कर युद्धक्षेत्र में उतर गईं और रानी सुरक्षित निकल गईं। कालपी और ग्वालियर में युद्ध कर अंग्रेजी सेना को रोकने की भरपूर कोशिश की और राष्ट्र रक्षा के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर दिये। लक्ष्मीबाई की महिला सेना की कमांडर जूही तोपखाना सँभालती रहीं और रानी के साथ ही किले से बाहर निकलीं। अन्त तक उनके साथ रहकर अंग्रेजों़ को आगे बढ़ने न दिया। इसी तरह रानी के व्यक्तिगत रक्षादल की कमांडर मुन्दर ने रानी के साथ ही प्राण त्यागे और उसका भी गंगादास की कुटी में अंतिम संस्कार हुआ। अवंतिका बाई लोधी मांडला क्षेत्र के रामगढ राज्य के अंतिम राजा लक्ष्मण सिेह की रानी थीं। राजा की मृत्यु के बाद पुत्र विक्रमजीत राजकाज न चला सका। अंग्रेज कमिश्नर ने रानी को पत्र लिखा कि कलेक्टर से मिलकर सरकार से संधि कर पेंशन लेकर राज्य सौप दंे अन्यथा परिणाम भुगतें। रानी के स्वाभिमान को यह स्वीकार न था फलतः अप्रैल 1858 ई. में अंग्रेजी सेना के साथ भयंकर युद्ध हुआ। रानी ने स्वयं युद्ध किया पर अपनी हार को देखते हुए रानी ने जंगलों की शरण ली और वहीं से गुरिल्ला युद्ध करती रहीं। नाना साहब की 12 वर्षीय बेटी मैना की चर्चा किए बिना वीरांगनाओं की यह मालिका अधूरी ही रहेगी। नाना साहब को पकड़ने बिठूर गई अंग्रेजी सेना नाना जी को ना पाकर गुस्से में बिठूर के किले को ध्वस्त कर दिया और आग लगा दी। इसी बीच उनकी बेटी मैना हाथ लग गई। उससे नाना साहब का पता ठिकाना पूछने पर मैना ने कहा कि उसे नहीं मालम और मालूम भी होता तो उन्हें नहीं बताती। इतना सुनकर अंग्रेज अधिकारी भड़क गया और मैना को भभकती आग में उछाल दिया, देखते ही देखते वह वीर कन्या आग की धधकती लपटों में समा गई। धन्य है भारत की वह बेटी। अवध के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल का नाम भी भारत की आजादी की लड़ाई में भाग लेने वाली महिलाओं की अग्र पंक्ति में शुमार किया जाता है। अंग्रेजो से युद्ध कर नाको चने चबवा दिए और अन्त में नेपाल चलीं गईं।
एक समृद्ध बंगाली परिवार में जन्मी अरुणा आसफ अली ने नमक आन्दोलन से राष्ट्रीय राजनीति में भागीदाराी प्रारम्भ की। गैर कानूनी रूप से नमक बनाने पर कैद कर लिया गया और एक साल की सजा हुई। जेल से छूटने के बाद भी राजनीति में सक्रिय रहीं। ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो‘ आन्दोलन में भाग लिया। फलतः आपकी सम्पूर्ण सम्पत्ति जब्त कर ली गई। भारतीय राष्ट्रीय कंाग्रेस की पत्रिका ‘इन्कलाब‘ का सम्पादन किया। हैदराबाद में 1879 ई. में जन्मी सरोजिनी नायडू की क्षमता को पहचान गोपाल कृष्ण गोखले ने इन्हें राष्ट्रीय राजनीति में आने का न्यौता दिया। सरोजिनी पहली बार गाँधी से 1914 में लंदन में मिलीं। यह उनके साथ अफ्रीका भी गई और समाज संगठन केे गुर सीखे। 1925 के कांगे्रस के कानपुर अधिवेशन की अध्यक्ष चुनीं गईं। गोलमेज सम्मेलन मे गाँधी जी के साथ लंदन गईं और भारत का जोरदार पक्ष रखा। देश की आजादी के बाद आपको उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया। भारत सरकार ने आपके जन्मदिन के अवसर पर 13.2.1964 को 15 पैसे का डाक टिकट जारी किया। कस्तूरबा गाँधी, दुर्गा भाभी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, विजयलक्ष्मी पंडित, लक्ष्मी मेनन, हंसाबेन मेहता, ऊदा देवी सदृश सहस्रों महिलाओं ने एक गणराज्य भारत बनाने के लिए अप्रतिम योगदान दिया है महिलाओं के महान त्याग और बलिदान के आदर्श को हम समझें और भेदभाव रहित समाज निर्माण में अपनी भूमिका निर्वहन करें तभी उनका महनीय अवदान सार्थक हो सकेगा।
— प्रमोद दीक्षित ‘मलय’