लघुकथा

लघुकथा- व्यथा

यह कैसा भाषण है? कानों में कभी राहुल गांधी की रुक-रुककर बोलती हुईअस्फुट-सी आवाज आ रही थी, तो कभी अखिलेश यादव की निस्तेज ध्वनि और फिर अचानक नरेंद्र मोदी जी की गरजती हुई आवाज गूंज रही थी, लेकिन यह व्यथित मन वाली महिला आवाज किसकी थी, समझ में नहीं आ रहा था, इसलिए मैं कान लगाकर सुनने लगी.
”मेरे प्यारे बच्चो, मैंने तुम्हें आजाद करवाया , आजादी के अनूठे हर्ष का अहसास करवाया, अब तुम ही मुझे सुनाने लग गए!
”वक्त का तकाजा है अब पत्थर ही बोलेंगे,
दिलों से कह दो गुफ्तगू बंद करें.”
मुझे समझ में आ गया था, यह भारतमाता कह रही थी.
”असल में तुम आजादी के मायने ही नहीं समझ पाए हो. आजादी का मतलब स्वतंत्रता होता है, स्वच्छंदता नहीं. मैंने तुम्हें बोलने की आजादी दी और तुम विवादित बोल बोलकर एक दूसरे पर कीचड़ उछालने लगे.” व्यथित मन की यह व्यथित पुकार थी.
”आजादी का अर्थ व्यर्थ की खींचतान और सर फुटौव्वल नहीं होती. आजादी दिलों की भाषा समझती है, पत्थरों की नहीं. तुम तो पत्थरबाजी पर उतारू हो गए. यह भी भूल गए कि कीचड़ पर पत्थर उछालने वाले के कपड़े भी कीचड़ में सन जाते हैं.” एक मां की व्यथा के उद्गार चरम पर थे.
”एक बार दिल से सोचकर देखो, क्या तुमने इसी आजादी की परिकल्पना की थी? एक ओर 22 विभिन्न विचारधाराओं के दल मिलकर अपनी महारैली करें और प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ दुष्प्रचार करें, दूसरी ओर वित्त मंत्री अरुण जेटली ‘मोदी बनाम विपक्ष का शोर’ ब्लॉग लिखकर विपक्ष को जमकर सुनाएं. क्या इस तरह तुम ”सबका साथ, सबका विकास” की संकल्पना को साकार कर पाओगे?” मुझे लग रहा था, भारतमाता की अश्रुधारा बरसने को आतुर थी.
”क्या तुम समझते हो, कि बिना बंधनों के आजादी का कोई मतलब रह जाता है? यह तो निरंकुशता का पर्याय हुआ न! जिस तरह एक के अधिकार तभी तक सुरक्षित रहते हैं, जब तक दूसरा अपने कर्त्तव्यों का पालन करता है, उसी तरह तुम्हारी आजादी तभी तक सुरक्षित है, जब तक तुम दूसरों की आजादी को सुरक्षित रहने देते हो, उसकी कद्र करते हो. यही तो हमारी वसुधैव कुटुम्बकम वाली भारतीय सभ्यता-संस्कृति ने हमें-तुम्हें सिखाया है. पर शायद तुमने इसको भुला दिया है और मेरे दामन को अव्यवस्था के नापाक दाग से कलुषित कर दिया है.” भारतमाता सुबकने-सी लगी थी.
”मैं यह भी जानती हूं, कि तुम मेरी गहन-गंभीर व्यथा को भाषण का नाम देकर मुझे चुप कराने पर तुले हुए हो, पर तुम्हें समझाना मेरा फ़र्ज़ है. मेरी व्यथा, तुम्हारी व्यथा न बन जाए, इसका ध्यान तुम्हें ही रखना होगा. तथास्तु, सदा खुश रहो.”
पसरा हुआ सन्नाटा असहनीय लगने लगा था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “लघुकथा- व्यथा

  • लीला तिवानी

    सब की परीक्षा होने वाली हे भारत मां का लाड़ला इन विदूषको मे से सच्चा सपूत ढूंढकर दैश की बागडोर योग्य को सौंप देगा, जैसे जनक ने राम को सीता सौंपी थी. फिलहाल तो भारतमाता अति व्यथित है. साधना ने माया पर बिगड़े बोल बोले हैं. अब साधना के सिर पर 50 लाख की बोली लग गई है. पहले ऐसा काम देश के दुश्मनों के लिए होता था, अब व्यक्तिगत दुश्मनी पर बात आ गई है.

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