प्रेम….
ये दिल की आदतें कैसी है
बार-बार चोट खाती
फिरभी दिल लगाती है
दर्द से गहराया है मन का कोना-कोना
तब भी उसी का नाम ले चीखती है
फिक्र कर मेरी…..
प्रेम के घेरे में बांध गया वो मुझे
जोड़कर दिल से दिल का तार
देकर मीठा-मीठा एहसास
खिंचता गया अपने दिल की सरहदों में मुझे
होने लगी अंगड़ाईयाँ जवां मेरी
जज्बातों के समंदर में भींगने लगा यौवन
मन का रंग लाल गुलाबी चटकदार हुआ
जैसे प्रेम का फागुन चढ़ा
पर ये वक्त का कैसा झोंका !!
एकपल में प्रेम का पन्ना-पन्ना बिखर गया
बहा के प्रेमसिक्त लहरों में वो मुझे
खुद किनारा हुआ।