मैं कविता
“मैं कविता”
मैं ह्रदय में उठते ज्वार की अभिव्यक्ति,
एक कवि हृदय की मनमोहक शक्ति।
कहती हूं कभी मैं ह्रदय प्रेम की भाषा,
मैं हूं एक कोमल ह्रदय की अभिलाषा।
बहती जाती हूं जैसे कोई निर्झर झरना,
कहती जाती हूं मन में उठती भावना।
स्नेह की भाषा से होती हूं मैं सिंचित,
ईर्ष्या द्वेष की भावना से होती हूं पीड़ित।
जागती हूं तब जब जग सारा सो जाता,
शब्दों के रूप में बाहर आने मन अकुलाता।
कवि की कलम का काली स्याही बनकर,
बन जाती आकृति मेरी शब्दों में ढल कर।
जब मेरा रूप मानव विकृत कर देता,
मेरी आत्मा को बड़ा आघात तब लगता।
बहाती हूं आंसू तब एक कोने में बैठकर,
मेरी ही आत्मा चली जाती मुझसे रूठकर।
बिन आत्मा के नहीं मेरा कोई अस्तित्व,
जैसे ह्रदय हीन किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व।
भूल को उजागर करने की शक्ति है मुझमें,
निर्भीक कहती जाती जो उदगार है मन में।
कभी मैं हृदय प्रेम झरना बन बहती जाती,
कभी मानवता की उन्मुक्त पक्षधर बनती।
स्नेह ममता की भाषा से जब गढ़ी जाती,
तब मुझसे परिचित होते मनुज भली-भांति।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।