सबसे चटख रंग
हर वर्ष की तरह इस बार भी होली आई रंगों की बहार लेकर। रंगो के संग संग खुशियों की बहार भी आई है। भर पिचकारी लोग एक दूजे पर रंग उड़ेल रहे हैं। रंगो से सराबोर होकर भिन्न-भिन्न टोलियां घूम घूम कर एक दूजे पर रंग उड़ेल रहे हैं और आनंद की बौछार कर रहे हैं। आज तो दिशा दिशा बहुत उल्लासित है रंगों से सराबोर होकर। विभिन्न रंगों की उड़ती गुलाल ने व्योम को भी आज रंगों से भर दिया है।
खुशियों के ऐसे माहौल में एक है जिसे इन रंगों से न कोई लेना देना, न इन खुशियों से कोई वास्ता। वह तो घर के कोने में बैठ कर किताबों के अक्षरों के संग अपनी आंखें लड़ा रही है। चारों ओर से उठती ध्वनियों की गूंज अपने कानों में न पड़े इसलिए कानों में उंगली रखकर, किताबों की दुनिया में स्वयं को समर्पित करने का प्रयास कर रही है। वह इस वर्ष बी एड की परीक्षा देने की तैयारी कर रही है।
अचानक कानों में मां की आवाज पड़ी “स्नेहा.. स्नेहा.. बेटा, नीचे आ जाओ, देखो तुम्हारे बचपन का दोस्त मयंक आया है। तुमसे मिलने की बात कर रहा है।”
“मयंक.. मम्मा.. मयंक इतने सालों के बाद हमारे घर कैसे आया? वह तो अमेरिका में रहता है न? आज होली के दिन.. नहीं.. मामा मुझे रंगो से बहुत डर लगता है। रंगो से मेरा नाता टूट चुका है। मैं रंग नहीं लगाऊंगी। मयंक से कह दो किसी और दिन आ जाए।”
“बेटा.. मैंने कहा उससे कि वह अब रंग नहीं खेलती है। रंगो से उसको एक तरह से परहेज हो गया है और डरती भी है। पर.. वह जिद करके बैठा है कि जब तक स्नेहा से नहीं मिलूंगा, मैं नहीं जाऊंगा। अब मैं क्या करूं? एक बार थोड़ी देर के लिए आ जा बेटा।” मां ने विनती करते हुए कहा।
स्नेहा धीरे-धीरे उदास मन भारी कदमों से न चाहते हुए भी नीचे उतर आई। दरवाजा खोल कर बाहर बरामदे में निकली तो देखा कुर्सी पर कोई बैठा हुआ है। पहले तो वह पहचान नहीं पाई “आप.. आप है कौन?”
स्नेहा को देखकर मयंक उठ खड़ा हुआ “मुझे पहचाना नहीं स्नेहा? मैं मयंक हूं! मैं तो तुम्हें अच्छे से पहचान गया। काफी साल हो गए हम मिले नहीं हैं, पर.. ऐसा भी नहीं कि हमारा चेहरा बदल गया है।”
मयंक का चेहरा देखकर स्नेहा को हंसी आ गई, उसने हंसते हुए कहा “मयंक..आईने में देखा है अपना चेहरा! भूत लग रहे हो बिल्कुल। रंगो से चेहरा पूरा ढका हुआ है तो मुझे कैसे समझ में आएगा कि तुम ही मयंक हो।” खिलखिला कर हंस पड़ी स्नेहा।
“तुम्हारी हंसी अब भी वैसी ही है स्नेहा जैसे तुम पहले खिल खिलाकर हंसा करती थी। परंतु.. तुम्हारा चेहरा ऐसा उदास क्यों लग रहा था। ऐसा क्या हो गया कि इतनी उदासी ओढ़ ली तुमने? थोड़ा सा गुलाल लगा दूं तुम्हारे गालों पर? गोरे गालों पर रंग चटख चढ़ेगा।” मयंक ने मुस्कुराते हुए पूछा।
ऐसा नहीं कि मयंक को स्नेहा के बारे में कुछ पता ही नहीं है। अपने मम्मी पापा से स्नेहा के बारे में सब कुछ पता चल गया उसे। स्नेहा के बारे में सुनकर न जाने क्यों मन में एक हूक सी उठी और दर्द पूरे तन बदन में फैल गया। वह स्वयं ही समझ नहीं पा रहा है कि यह कैसा एहसास है। बचपन में एक साथ खेलते हुए, पढ़ते हुए कभी ऐसा कुछ एहसास हुआ ही नहीं। न जाने कौन सी ऐसी डोर है जो मयंक को स्नेहा की ओर खींचे ले जा रही है। इतने सालों के अंतराल के पश्चात भी स्नेहा की छवि दिल से मिटा नहीं पाया वह। दिल के किसी न किसी कोने में स्नेहा की वह खिलखिलाती उजली हंसी आज भी अंकित है।
“नहीं मयंक मैंने होली खेलना छोड़ दिया दो साल हो गए। रंगो से अब मेरा कोई नाता नहीं है। होली का त्यौहार आता है तो मेरे जीवन में अमावस की रजनी की भांति काली अंधेरी उदासी लेकर आता है।” स्नेहा की आंखों की कोरों में बुंदे झिलमिलाने लगी।
“ऐसा क्या हो गया स्नेहा कि रंगों से ही नाता तोड़ दिया। रंग तो जीवन में खुशियां भर देते हैं। रंगो के बिना तो जीवन ही नहीं है। देखो ना.. अगर रंग न हो तो यह प्रकृति भी कितनी वीरानी सी लगने लगेगी। प्रकृति में जहां भी देखो वही रंगो का ही तो खेल है। रंग ही तो है जो जीवन में रस घोल देता है। तभी तो हम मनुष्य के स्वभाव में नवरस है। कभी क्रोध,कभी प्रेम, कभी घृणा आदि आदि।”
“मेरे जीवन में भी रंगों का खेल हुआ करता था कभी। स्वभाव में नवरस भी था, परंतु दो साल पहले ईश्वर ने मुझसे सारी खुशियां छीन ली और मुझे बेरंग जीवन दे दिया। मेरी हंसी छीन ली, मेरी खुशी छीन ली और जीवन विरान हो गया।” स्नेहा की आंखों से आंसू लुढ़क कर गालों पर आ गिरे।
“ऐसा क्या हुआ मैं जानना चाहता हूं स्नेहा? इतनी सी उम्र में तुमने इतनी गंभीरता ओढ़ ली और रंगों से भी नाता तोड़ दिया।”
स्नेहा को सिसकते हुए देखकर मयंक ने उसके सिर पर हाथ रख दिया और कहा “मुझे सारी बातें बता कर मन हल्का कर लो स्नेहा! हम बचपन के दोस्त हैं, दोस्त से अपनी बात छुपानी नहीं चाहिए।”
स्नेहा ने अपने आप पर काबू पाते हुए कहना शुरू किया “तीन साल पहले प्रणव से मेरी शादी हुई थी। शादी मेरे मम्मी पापा की मर्जी से हुई थी, परंतु.. मेरी किस्मत अच्छी थी कि मुझे प्रणव मिले थे। बहुत हंसमुख और जाॅली नेचर के। बहुत प्यार करते थे मुझसे और मैं भी उनके प्यार में पूरी तरह समर्पित थी। हम दोनों बहुत खुश थे। होली में रंगो से ऐसे भिगते थे कि कोई हमें पहचान ही नहीं पाता था। वो होली मैं आज भी भूल नहीं सकती जब प्रणव मुझे गोद में उठाकर रंग घुले हुए पानी की टंकी में डुबो देते थे और मैं बहुत सारा रंग घुला पानी पी जाती थी। प्रणव का वह दीवानापन मुझे बहुत अच्छा लगता था पर.. मैं झूठा गुस्सा करती थी। मुझे गुस्से में देखकर, फिर प्रणव मुझे मनाते थे।”
“तुम ने शादी कर ली और मुझे बुलाया भी नहीं।” मयंक ने माहौल को हल्का बनाने का प्रयास किया।
“मिस्टर अमेरिका.. आप अमेरिका में थे तो कैसे बुलाती मैं आपको। हमें न पता ठिकाना दिया, न कुछ खबर ली हमारी। इतने सालों के बाद आकर अब कह रहे हो शादी में नहीं बुलाया। तुमने भी अपनी शादी में हमें कहां बुलाया? हमें भी तुमसे शिकायत है। न तो बुलाया और न ही भाभी से हमें मिलवाया। आज भी साथ लेकर नहीं आए हो, दोनों मिलकर आते तो कितना अच्छा लगता?”
“हा हा हा मुझे हंसा दिया स्नेहा तुमने। खुद तो रो रही हो और मुझे हँसा रही हो? क्या सड़क से किसी को भी पकड़के लाकर कहता कि लो स्नेहा.. अपनी भाभी से मिल लो!”
“तो क्या तुमने अभी तक शादी नहीं की?” आश्चर्य होते हुए स्नेहा ने पूछा।
“अब समाज ने शादी के बाद लड़कियों का मांग भरने का, मंगलसूत्र पहनने का रिवाज निकाला है। हमारे लिए तो कुछ भी रिवाज नहीं है तो कैसे पता चलेगा कि कोई लड़का शादीशुदा है कि नहीं।”
“अंगूठी से!”
“अंगूठी तो अपनी मर्जी से कोई भी पहन सकता है, उससे क्या साबित होता है?”
” सीधी सीधी सी बात है.. कहो ना कि तुम अभी तक कुंवारा हो!”
“हां वो तो मैं हूं।” हा हा कर के हंसने लगा मयंक!
“मैं कोई बुद्धू जैसी बात कर रही हूं क्या? जो तुम हँसे जा रहे हो।” गुस्सा करते हुए स्नेहा ने कहा।
“तुम्हारा गुस्सा अब भी वैसा ही है स्नेहा! तुम बिल्कुल नहीं बदली। अच्छा तो यह बताओ फिर खुशी में खलल किसने डाली। कौन विलेन बन कर आया तुम दोनों के बीच में। मैं पूरा जानना चाहता हूं।” जिज्ञासा वश मयंक ने पुनः पूछा।
“कोई विलेन बन कर नहीं आया मयंक। मेरी ही किस्मत खराब थी। वो भी होली का ही दिन था जब प्रणव अपने दोस्तों के साथ बाइक पर निकले थे होली खेलने के लिए, परंतु घर में लौट कर वे तो नहीं आए, आई उनकी..!! नहीं.. नहीं.. मैं आगे और कुछ नहीं बता सकती।” स्नेहा सिसकने लगी।
“तब से तुमने रंगों से अपना नाता तोड़ लिया और जीवन को बेरंग बनाकर एक अंधेरी खाई में कैद हो कर स्वयं को दंड दे रही हो। पर.. किस बात का दंड, तुमने क्या गुनाह किया? इन पुराने ख्यालातों से बाहर आ जाओ स्नेहा। हम नए युग के नए लोग हैं। दकियानूसी विचारों को छोड़कर नए युग के सकारात्मक विचारों का स्वागत करो। अभी तुम्हारी उम्र कितनी है, ज्यादा से ज्यादा बत्तीस क्योंकि मैं स्वयं तैतीस साल का हूं। एक ही कक्षा में पढ़ते थे हम दोनों।” मयंक भावावेग में सारी बातें कह गया।
“पर मयंक.. मैं रंग खेलूंगी तो लोग कहेंगे कि देखो विधवा हो कर भी रंग खेल रही है। ऐसा नहीं है कि मेरा खुश होने का मन नहीं करता। रंग खेलने का मन नहीं करता। मुझे ऐसा लगता है कि कई आंखें मुझे घूर रही है, यह कहकर कि.. स्नेहा विधवा है.. स्नेहा विधवा है..!” डर से स्नेहा ने अपने कानों पर हाथ रख लिए।
स्नेहा की यह हालत देख कर मयंक को आज बिल्कुल भी खुशी नहीं हुई। उसकी आंखें नम सी हो उठी “उसने अपनी जेब में रखे गुलाल निकाला और स्नेहा के गालों पर लगाते हुए कहा “बुरा न मानो होली है।”
स्नेहा गालों पर लगे गुलाल पोंछते हुए पीछे हटी और कहा “ये क्या पागलपन कर रहे हो मयंक? लोग क्या कहेंगे।”
“जिंदगी अपनी है हम कैसे भी जीए, लोगों की परवाह करते-करते अपनी जिंदगी को दोजख बना दे क्या? लोगों को जो कहना है कहने दो। अब तुम और बहुत दिनों तक विधवा नहीं रहोगी, यह मेरा वादा है।” कहकर मयंक मंद मंद मुस्कुराने लगा, मयंक की आंखों में आंखें मिलते ही स्नेहा के होठों पर भी एक पतली मुस्कान की लकीर खींच गई।
बहुत देर हो गई देखकर स्नेहा की मम्मी को चिंता होने लगी तो वह बाहर आ गई “स्नेहा बेटा.. कितनी देर हो गई है, मयंक चला गया है क्या?”
सामने मयंक को खड़ा देखकर वह थोड़ी सी शरमा गई और बातें संभालते हुए कहा “मयंक बेटा.. तुम अभी तक यहीं पर हो, मुझे पता नहीं था। आ जाओ.. आ जाओ.. बेटा अंदर आ जाओ.. अंदर आकर थोड़ी देर बैठ जाओ।”
स्नेहा के गालों पर गुलाल लगा हुआ देखकर उसकी मां की आंखें बड़ी बड़ी हो गई और कहने लगी “अरे.. यह क्या किया तूने, विधवा हो कर गुलाल लगा लिया गालों पर। लोग देखेंगे तो उंगली उठाएंगे हम पर।”
” बस आंटी.. बहुत हो चुका, आप आगे से एक बार भी स्नेहा को विधवा नहीं कहेंगी। आप स्वयं अपनी बेटी को विधवा विधवा कह कर उसे इतना दुख पहुंचाती है तो समाज अपना कोई सगा है.. जो छोड़ देगा। आप लोगों की दकियानूसी खयालों के कारण समाज में कई जिंदगियां कुर्बान हो जाती है इसी विधवा के नाम पर। पूरा जीवन नर्क जैसी जिंदगी जीती हैं ये मासूम लड़कियां। जबकि इनकी कोई गलती ही नहीं होती है। जो चला गया वह तो गया, दोबारा लौटकर नहीं आएगा परंतु.. जो है उसे तो एक इंसान जैसी जिंदगी जीने दीजिए आप लोग। इतनी पढ़ी-लिखी हो कर भी आप एक अशिक्षित की तरह बातें कर रही हैं। क्यों उनकी जिंदगी को जानवरों से बदतर बना देती हैं? न जीते बनता है न मरते बनता है। सांसे चलती है पर.. रुक रुक कर, तड़प तड़प कर। यह कैसा न्याय है समाज का? किसने बनाया यह नियम औरतों के लिए? किसने बेड़ियों में जकड़ लिया बेगुनाह औरतों को? क्यों नहीं मर्दों के लिए यह नियम बनाया कि पत्नी की मृत्यु के पश्चात कोई मर्द शादी नहीं कर सकता। उसे भी उन्हीं सब नियमों का पालन करना है जो एक विधवा औरत करती है। मुझे पता है मर्दों की बनाई हुई दुनिया है और मर्द ने अपने हिसाब से ही सारे नियम बनाए हैं। बहुत हो चुका.. अब इस नियम को हमें बदलना ही पड़ेगा। हम जैसे युवकों को आगे आना पड़ेगा तभी कुछ सकारात्मक बदलाव आ सकता है। अब स्नेहा बहुत देर तक विधवा नहीं रहेगी। होली के बाद ही शुभ मुहूर्त देख कर आपके घर में बारात लेकर आऊंगा। आप स्नेहा की शादी की तैयारी करिए। आप लोग अगर शादी की आज्ञा नहीं देंगे तो..हम कोर्ट मैरिज कर लेंगे और स्नेहा को लेकर अमेरिका चला जाऊंगा। ये मेरा वादा रहा। अब मैं चलता हूं स्नेहा, तुम अपना ध्यान रखना। किसी से डरने की आवश्यकता नहीं है। मैं आने ही वाला हूं, ठीक है! मैं आज चलता हूं, फिर मिलूंगा..बाय..!” कहकर मयंक तेज कदमों से घर से बाहर निकल गया..!!
मयंक को जाते हुए देख कर निशब्द खड़ी स्नेहा के होठों पर एक उजली हंसी बिखर कर, पूरे मुख मंडल को सुबह की रक्तिमा आभा सी दमका दी..!!
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।