आदमी
डालो जिधर निगाह, है मजबूर आदमी।
दर दर भटक रहा है, मजदूर आदमी।
है बेबसी निगाह में, रोज़गार की लिए,
अब तक बना हुआ है, गफूर आदमी।
सड़कों पे बोझ ढोता है, दिन ढले तलक,
फुटपॉथ पे सोता है, थक के चूर आदमी।
खुशियों की ख़्वाहिशों में, खोया हुआ है यूं ,
के उम्र से पहले हुआ, बेनूर आदमी।
तलाश-ए-रोटी में रहा, है घूम गोल गोल,
दुनियां से हुआ गोल ,बदस्तूर आदमी ।
— पुष्पा अवस्थी “स्वाती”