जागती ही रही ,रात मद से भरी
मन की कोकिल, विरह राग गाती रही।
तुम न थे, पर चकोरी भरी नेह से
चाँद होने का बस भास पाती रही।।
जो संजोये थे मन ने, मगन हो सपन ।
विरह की आग में,हो गये वो हवन।
मालती ने पलक खोल, सिहरा दिया,
वो क्षितिज देख बुझता, ये मन का दिया।।
रात विश्वास थी, आसरा प्रीत का
भोर छाती रही, आस जाती रही।
तुम न थे, पर चकोरी भरी नेह से
चाँद होने का बस भास पाती रही।
है बनाने लगी, भोर रंगोलियाँ
जा रही पात्र ले, मोहिनी टोलियाँ
बाँसुरी पे बजी राग आसावरी
हो रही मुग्ध तरुवर की भी डालियाँ
कूल कालिंदी पे छा गई रोशनी
आँख मे वेदना झिलमिलाती रही।
तुम न थे, पर चकोरी भरी नेह से
चाँद होने का बस भास पाती रही।
— रागिनी स्वर्णकार (शर्मा)*
इंदौर