लिपटता हुआ सा लगे गुल शजर से
धनक सा लगे है, कसकता जिगर से
मचलती उसाँसें यही कह रहीं हैं
के गुज़रा है महबूब शायद इधर से
महक आरही है मिरी धड़कनों से
यही लग रहा है ,कि चूमा नज़र से
गमकने लगी रातरानी तभी से
दिखाई दिये वो गुज़रते इधर से
शगूफे विगसने लगे हैं हुलस के
निहारा उसीने ,नशीली नजर से
कि बाहें मचलने लगीं हैं ये अब तो
हसीं है ये आलम उसी के असर से
— रागिनी स्वर्णकार (शर्मा)
इंदौर