गज़ल
ज़मीन के सीने पे दीवारें उठा दी जाएँगी
निशानियाँ इखलास की सारी मिटा दी जाएँगी
तवंगरों की बेवजह ज़िद पूरी करने के लिए
फिर यहाँ पर खून की नदियां बहा दी जाएँगी
याद रखता है कोई कब गर्ज़ पूरी होने पर
सुबह होते ही शमाएँ सब बुझा दी जाएँगी
बुत शहीदों के चौराहों पर लगे होंगे मगर
यादें अपने ज़ेहन से उनकी मिटा दी जाएँगी
हाकिमों के महल में उजाला करने के लिए
बस्तियाँ कितनी अँधेरों में डुबा दी जाएँगी
— भरत मल्होत्रा