मेरा गांव
बहुत पहले छूटा था
मेरा अपना प्यारा गांव
भूला नहीं था पर कुछ भी
एक -एक चीजों का वृत चित्र
मेरे मानस पटल पर अंकित था।
बार-बार मन करता उन्हें देख आऊं
छूट चुके थे जो मुझसे वर्षो पहले
चल पड़ा मैं ,मन में अनेंकों आशायें लिए
पहुंचा वहां तो बदला-बदला सब कुछ पाया
पतली-पतली पगडंडियां जहां हुआ करती वहां अब पक्की सड़क बन गई थी।
पुटुस और थेथर के पेड़ पगडंडियों के
किनारे उगे रहते थे,सब गायब हो चुके थे
पनघट पर रौनके हुआ करती थी
कुओं पर औरतों का जमघट
सिर पर गागर ,पैरों में झांझर
गप्पें मारती नजर आती थीं बहू बेटियां
घूंघट हट गई थी,पहनावे बदल गये थे
आधुनिक परिधानों ने वहां भी अपनी
पहुंच बना ली थी….।
चेहरे का भोलापन जैसे किसी ने छीन लिया हो
सब के चेहरे पर चतुराई नजर आ रही थी।
आधुनिक लिबास में लिपटे युवक दिखे,
पश्चिमी रंग में रंगे हुए।
मेरे हमजोली तो सब पलायन कर चुके थे
मायूस मैं लौटने को हुआ
एक पहचानी आवाज आई
“अरे!बबूआ बहुत दिनों बाद आयो। तनिक
मुहं तो मीठा करते जाओ”
मेरी आंखों में आंसू छलक आये।
महसूस किया कि कुछ तो ग्रामीण संस्कार
बाकी है।
बुझे मन से मैंने शहर की ओर रूख किया
चलते-चलते गांव की सोंधी मिट्टी ने
रूला दिया…………
मन ही मन बुदबुदाया…मेरी जन्मभूमि,मेरा
गांव तुम्हें सलाम।
— मंजू लता