कविता

मेरा गांव

बहुत पहले छूटा था
मेरा अपना प्यारा गांव
भूला नहीं था पर कुछ भी
एक -एक चीजों का वृत चित्र
मेरे मानस पटल पर अंकित था।
बार-बार मन करता उन्हें देख आऊं
छूट चुके थे जो मुझसे वर्षो पहले
चल पड़ा मैं ,मन में अनेंकों आशायें लिए
पहुंचा वहां तो बदला-बदला सब कुछ पाया
पतली-पतली पगडंडियां जहां हुआ करती वहां अब पक्की सड़क बन गई थी।
पुटुस और थेथर के पेड़ पगडंडियों के
किनारे उगे रहते थे,सब गायब हो चुके थे
पनघट पर रौनके हुआ करती थी
कुओं पर औरतों का जमघट
सिर पर गागर ,पैरों में झांझर
गप्पें मारती नजर आती थीं बहू बेटियां
घूंघट हट गई थी,पहनावे बदल गये थे
आधुनिक परिधानों ने वहां भी अपनी
पहुंच बना ली थी….।
चेहरे का भोलापन जैसे किसी ने छीन लिया हो
सब के चेहरे पर चतुराई नजर आ रही थी।
आधुनिक लिबास में लिपटे युवक दिखे,
पश्चिमी रंग में रंगे हुए।
मेरे हमजोली तो सब पलायन कर चुके थे
मायूस मैं लौटने को हुआ
एक पहचानी आवाज आई
“अरे!बबूआ बहुत दिनों बाद आयो। तनिक
मुहं तो मीठा करते जाओ”
मेरी आंखों में आंसू छलक आये।
महसूस किया कि कुछ तो ग्रामीण संस्कार
बाकी है।
बुझे मन से मैंने शहर की ओर रूख किया
चलते-चलते गांव की सोंधी मिट्टी ने
रूला दिया…………
मन ही मन बुदबुदाया…मेरी जन्मभूमि,मेरा
गांव  तुम्हें सलाम।
मंजू लता

डॉ. मंजु लता Noida

मैं इलाहाबाद में रहती हूं।मेरी शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई है। इतिहास, समाजशास्त्र,एवं शिक्षा शास्त्र में परास्नातक और शिक्षा शास्त्र में डाक्ट्रेट भी किया है।कुछ वर्षों तक डिग्री कालेजों में अध्यापन भी किया। साहित्य में रूचि हमेशा से रही है। प्रारम्भिक वर्षों में काशवाणी,पटना से कहानी बोला करती थी ।छिट फुट, यदा कदा मैगज़ीन में कहानी प्रकाशित होती रही। काफी समय गुजर गया।बीच में लेखन कार्य अवरूद्ध रहा।इन दिनों मैं विभिन्न सामाजिक- साहित्यिक समूहों से जुड़ी हूं। मनरभ एन.जी.ओ. इलाहाबाद की अध्यक्षा हूं। मालवीय रोड, जार्ज टाऊन प्रयागराज आजकल नोयडा में रहती हैं।