दोहे — सौंदर्य-स्तुति
दर्पण ने नग़मे रचे,महक उठा है रूप !
वन-उपवन को मिल रही,सचमुच मोहक धूप !!
इठलाता यौवन फिरे,काया है भरपूर !
लगता नदिया में ‘शरद’,आया जैसे पूर !!
उजियारा दिखने लगा, चकाचौंध है आंख !
मन-पंछी उड़ने लगा, नीलगगन बिन पांख !!
अधरों पर लाली खिली, गाल हो गये लाल !
नयन नशीले देखकर,आने वाला काल !!
अंगड़ाई,आवेश है, मस्ती है,उन्माद !
उजड़ेगा या अब ‘शरद’ , हो कोईआबाद !!
बासंती परिवेश है, बासंती है भाव !
वह ही खुश प्रिय का नहीं, जिसको आज अभाव !!
मन बौराया,तन हुआ, मादकता- पर्याय !
अंतरमन रचने लगा, गीतों का अध्याय !!
नगरी है ये नेह की, दिल मिलते बेचैन !
प्यासे हैं,सबके अधर, नयन बहुत बेचैन !!
रूप,गंध,रस,प्रीत है, पलता है अनुराग !
सबके उर गाने लगे, मिलन- प्रणय के राग !!
— प्रो. शरद नारायण खरे