नज़र बट्टू (लघु कथा)
‘भइया, 10 किलो नींबू और 5 किलो हरी मिर्च तोल दे जल्दी से’ कमला सुबह 4.30 बजे ही थोक सब्जी मण्डी में अपनी बेटी मीना के साथ आई थी। यह उसका रोजाना का काम था। ‘यह लो, दोनों चीजें’ दुकानदार ने कहा और दोनों नींबू और मिर्च उठाकर सुबह की बस में बैठकर बाज़ार पहुंच गई जहां वे एक जगह बैठकर एक नींबू और पांच मिर्चियों की माला पिरोती थीं। फिर वे बाज़ार की हर दुकान खुलने से पहले ही उसके दरवाजे पर एक-एक माला टांगती जाती थीं ताकि दुकान को नज़र न लगे। अक्सर यह लोगों की मान्यता होती है जिसमें वे विश्वास करते हैं। चूंकि सुबह-सुबह दुकानें नहीं खुली होती थीं इसके बदले वे साप्ताहिक या द्विपाक्षिक रूप से दोपहर बाद या शाम को दुकानदारों से इकट्ठे पैसे ले लिया करती थीं।
‘अभी ग्राहकी का समय है। तुम क्यों आती हो? मीना को भेज दिया करो।’ एक दुकानदार ने कमला से कहा। मीना गजब की सुन्दर थी। नींबू मिर्च टांगते टांगते कमला की उम्र हो गयी थी और उसने दुनिया देखी थी। कमला को समझते देर न लगी। ‘ठीक है, शाम को मीना आ जायेगी’ कहकर कमला चली गई। दुकानदार का मन हिलोरें मारने लगा।
‘लाओ बाबूजी पैसे दो’ मीना ने उक्त दुकानदार से कहा। ‘कौन हो तुम भई?’ दुकानदार ने पूछा। ‘पहचाना नहीं, मैं मीना हूं, कमला की बेटी, सुबह ही तो तुमने कहा था मैं ही पैसे लेने आऊँ सो मां ने भेज दिया’ मीना ने कहा। ‘यह क्या हुलिया बना रखा है?’ दुकानदार का इशारा मीना के लम्बे बालों की दोनों चोटियों में लटके नींबू और मिर्चियों की मालाओं से था। ‘ओह अच्छा इनकी बात करते हो, ये मालाएं नज़र बट्टू हैं। अगर तुम्हारी दुकान को बुरी नज़र से बचाती हैं तो मुझे भी बुरी नज़र से बचाती हैं, ऐसा मां ने कहा था’ मीना ने जवाब दिया। दुकानदार ने शर्म के मारे मुंह नीचा कर लिया और पूरा हिसाब दे दिया।
प्रिय ब्लॉगर सुदर्शन भाई जी, बहुत ही सुंदर लघुकथा. मजा आ गया. क्या सजावट की है आपने मीना की! नज़र बट्टू लगा दिए! लाला को हारकर पूरा हिसाब चुकाना ही पड़ा. मां हर नज़र को पहचानती भी है और अपनी बेटी को सतर्क भी करती है. जिंदगी में हर हालात से सामना करने की ताक़त वह अपनी बेटी में पैदा करना चाहती है तभी वह दुकानदार की नीयत को पहचानकर भी बेटी को भेजती है. बहुत सुंदर व संदेशप्रद रचना के लिए आभार व बधाई.