कविता

फिर शर्मसार हुई मानवता

फिर शर्मसार हुई मानवता
फिर से जागा शैतान कोई
फिर हैवानियत ग्रास बनी है
फूल सी नन्ही जान कोई
किया लहुलुहान भारत का मन
दरिंदगी की कीलों ने
मासूम से कोमल तन मन को
नोचा है हवस के चीलों ने
परिजनों पर टूट पड़ा है
दुःखों का आसमान कोई
फिर हैवानियत ग्रास बनी है
फूल सी नन्ही जान कोई
क्यों कानूनों की धारा से
बंधें हुए हैं हाथ सभी
क्यों अनदेखी करती है सियासत
क्यों मूक बने है़ं नाथ सभी
दोषी की रूहें कांप उठे
आए ऐसा फरमान कोई
फिर हैवानियत ग्रास बनी है
फूल सी नन्ही जान कोई
क्रोध में डूबा है जनमन
दिल में चुभा है शूल कोई
ऐसी सजा मुकर्रकर हो कि
फिर न तोडे़ फूल कोई
दोषी को टांगे चौराहे पर
आए ऐसा प्रावधान कोई
फिर हैवानियत ग्रास बनी है
फूल सी नन्ही जान कोई
— विक्रम कुमार

विक्रम कुमार

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