कहानी

बारह साल की वह लड़की

वह हवेली इतनी बड़ी थी कि पूरा दिन घूमते रहो तब कहीं जाकर पूरी देख सकते हो, हवेली क्या थी पूरा किला था। जिस हिस्से में वे लोग रहते थे वह तो जेल जैसी ऊँची दीवारों से घिरा हुआ था। रहने वाले बस तीन ही प्राणी थे। बारह साल की सतविन्दर और उसके माता-पिता सरदार सुखवंत सिंह और हरनाम कौर। सात फुट ऊची दीवारों में एक बड़ा सा दरवाजा जो किसी अकेली लड़की से न तो बंद होता न खुलता पर वह उसे पहले भी खोल लेती थी और बंद भी कर देती पूरा जोर लगाकर। फर अब तो वह बड़ी भी हो गई थी। पूरे बारह साल की।
बात 1947 के जनवरी महीने की है। भरपूर सर्दी पड़ रही थी। अभी लोहड़ी वाले दिन गाँव से उसके मामा आए हुए थे। उन्होंने ही बताया था कि आज सतविन्दर पूरे बारह साल की हो गई है। माँ ने हँसते हुए कहा, ‘‘रिश्ता ढूँढ़ भानजी के लिए। चूड़ा तो तुझे ही चढ़ाना है न। अब यह रोटी-पानी का काम भी करने लगी है।’’
दूसरे दिन मामा, माँ को गाँव ले गए थे। गाँव रावलपिण्डी से दूर नहीं था, बस दो घण्टे का रास्ता था। जाते-जाते माँ ने कहा था, ‘‘दो-चार दिन के लिए जा रही हूँ। उदास मत होना। दार जी और नौकरों की रोटी ठीक से बना लेगी न?’’
‘‘हाँ बेबे! तू जा।’’
और आज पूरे छः दिन हो गए थे, सुखवंत सिंह ने दोपहर की रोटी जल्दी ही खा ली थी आज। हवेली का पुराना नौकर अब्दुल जानवरों को पानी पिला रहा था। तौलिए से मुँह पौंछकर सुखवंत सिंह ने तृप्ति का डकार लिया, ‘‘मेरी ध्ी वड्डी हो गई ए। बड़ा स्वाद साग बणाया है भाई।’’
उन्होंने बड़े दुलार के साथ बेटी के सिर पर हाथ पफेरा। पिफर कहने लगे, ‘‘तेरी माँ तो पेके जाके बैठ ही गई है। मैं अज्ज जा के लैं आवां? शाम तक आ जाऊँगा। डरेगी तो नहीं अकेली?’’
‘‘नहीं दार जी, अब्दुल चाचा है न।’’
‘‘हाँ! एह तो मैं भुल्ल ही गया। ठीक है। अन्दर से दरवाजा बंद करले।’’ और बाहर निकलते-निकलते अब्दुल को आवाज़ लगाई,
‘‘अब्दुल! मैं सरदारनी को लेने जा रहा हूँ शाम तक वापस आ जाऊगाँ, घर और कुड़ी का ख्याल रखना।’’
‘‘ठीक है सरदार जी।’’ अब्दुल ने वहीं से जवाब दिया और सरदार जी बाहर निकल गए। थोड़ी देर बाद अब्दुल भी हवेली का दरवाजा उढ़का कर निकल गया तो सतविन्दर ने अन्दर से कुण्डी लगा ली और आँगन में बान की खाट पर लेटकर ध्ूप सेकने लगी। मीठी-मीठी सुखद गर्मी में उसे झपकी आने लगी थी कि तभी दरवाजे का बड़ा-सा कुण्डा खड़कने लगा। सतविन्दर उठकर बैठ गई। कौन हो सकता है, दार जी गए नहीं क्या? शायद कुछ भूल गए हों। पर आवाज क्यों नहीं दे रहे। वे तो कहते न, ‘पुत्तर दरवाजा खोल।’ पिफर कौन होगा?
‘‘कौन है?’’ उसके कंठ से स्वर निकला पर कोई जवाब नहीं आया। कुण्डा बदस्तूर खड़क रहा था। उसने पिफर आवाज़ दी, ‘‘कौन है, बोलते क्यों नहीं?’’
‘‘मैं हूँ गुड्डी, अब्दुल चाचा। दरवाजा खोल।’’
‘‘तो पहले क्यों नहीं बोले?’’ उसने उठकर दरवाजा खोल दिया, पर यह क्या? अब्दुल के साथ और बारह हट्टे-कट्टे जवान भी थे। अब्दुल ने उसे घबराया देखकर कहा, ‘‘ये मेरे दोस्त हैं, हवेली देखने आए हैं। तू क्यों डर रही है? मैं हूँ न।’’ और अब्दुल ने हवेली के दरवाजे की ऊपर वाली सांकल चढ़ा दी जहाँ सतविंदर का हाथ नहीं जाता था। सतविन्दर डर तो रही थी पर उसने कुछ कहा नहीं। और न ही अपनी घबराहट उन पर जाहिर की।
‘‘बड़ी सयाणी कुड़ी है।’’ एक ने उसके गालों पर थपकी दी। तो वह रास्ते से एक तरफ हट गई। तभी उनमें से एक बोला, ‘‘यार बड़ी भूख लगी है, भाग-दौड़ में रोटी भी नहीं खाई। चल कुड़िए मकई की चार रोटियाँ बना। पफटापफट।’’
सतविन्दर हाँ में सिर हिलाकर रसोई की तरफ़ खिसक गई। अभी तक उन्होंने उसे कुछ भी नहीं कहा था। उसने मक्की का आटा निकालकर रोटियाँ बनानी षुरू कर दीं तो पिफर एक दूसरा जवान बोला, ‘‘शकर है घर में, मक्खन तो होगा ही?’’
सतविन्दर ने सिर्फ सिर हिला कर हाँ की, उसे रोना आ रहा था। दो तीन लोगों की रोटी तो वह बना लेती थी पर इतने आदमी? वह भी तब, जब घर में न माँ है न बाप। पता नहीं ये क्यों आए हैं, क्या करेंगे? पर उन लोगों ने आराम से रोटी खाई।
अब वे सतविन्दर की तरपफ मुड़कर बोले, ‘‘कुड़ी राणी! जिस तरह आराम से तूने हमें रोटी खिलाई, हम तुझे कुछ नहीं कहेंगे। बस ट्रंकों की चाबियाँ दे दे और वो सबसे ऊपर वाले कमरे में चली जा। हाँ पर हमें ये बता जा कि तेरी बेबे ने माल-मता कहाँ रखा हुआ है।’’
अब सतविन्दर की समझ में सब कुछ आ गया था, क्योंकि लूट-पाट और मार-काट तो रावलपिण्डी और आस-पास के गाँवों में कब से चली हुई थी और अब्दुल? वो तो कहीं दिख ही नहीं रहा था। पता नहीं किस कोने में खिसक गया था, पर लेकर तो वही आया था उनको वरना वह दरवाजा क्यों खोलती?
सतविन्दर ने चुपवाप अल्मारी से निकालकर चाबियाँ उन्हें दे दीं और बक्से भी दिखा दिए। फर वह ऊपर के कमरे में चली गई जहाँ उन गुण्डों ने उसे जाने को कहा था। कमरे का दरवाजा अन्दर से बंद करके सतविन्दर दरवाजे के साथ लगकर खड़ी हो गई और लम्बे-लम्बे साँस लेने लगी। वह सोचने लगी, कि अब क्या करना चाहिए, इनका क्या भरोसा, यदि कुछ और आ गई मन में तो? नहीं-नहीं वाहेगुरु जी, मुझे रास्ता बताओ अब मैं क्या करूँ।
नीचे के कमरे से सामान उठाने-पटकने की आवाज़ें आ रही थीं। पर उसके दिमाग की आवाज़ें तो किसी को सुनाई नहीं दे रही थी। लुटेरों को खूब सारा कीमती माल हाथ लगा था। बड़ी हवेली थी, पूरी रावलपिण्डी में मशहूर। सब की बाँछें खिली हुई थीं। अब्दुल ने भी खूब बड़ी गठरी बाँध् ली थी। अब ये तेरह लुटेरों का कापिफ़ला सिर पर भारी गठरियाँ लादे बड़े दरवाजे की ओर बढ़ रहा था, एक के पीछे एक। तभी कहीं से गोली चली और सबसे आगे वाली गठरी एक तरफ को उछली। गोली लुटेरे की पीठ में लगी थी और वह वहीं ढेर हो गया। सब चौंके।
‘‘इसे छोड़ो और यहाँ से जल्दी निकलो। लगता है किसी को खबर हो गई है।’’
कहता हुआ दूसरा आदमी आगे बढ़ा। पर यह क्या, एक और गोली आई और उसे भी ढेर कर गई। थोड़ी देर के लिए सन्नाटा हुआ, सबने मुड़-मुड़कर देखा पर कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया। पिफर तीसरा आदमी आगे बढ़ा पर उसका भी वही हाल हुआ। अब बाकी के सब चौकन्ने होकर चारों तरपफ देखते हुए आगे बढ़ रहे थे पर जो भी आगे बढ़ता एक गोली कहीं से आती और उसका काम तमाम कर जाती।
दरवाजा सिर्फ एक था, पर दरवाजे तक पहुँचने से पहले ही मौत उन तक पहुँच रही थी। इस तरह नौ लुटेरे ढेर हो गए तो बाकी बचे चार दीवार के साथ दुबक गए। अब तक गोलियों की आवाज सुनकर पूरा मुहल्ला इकट्ठा होकर दरवाजा खड़खड़ रहा था पर दरवाजे के सामने तो लाशों का ढेर लगा था। बाकी चोर दुबके पड़े थे दरवाजा खोलता कौन। इसी हल्ले-गुल्ले के बीच चोर ढेर होते जा रहे थे।
गोलियाँ बाहर होने वाले शोर से भी नहीं रुकी थी। अब तक पुलिस भी आ चुकी थी। पुलिस की गाड़ी से घोषणा हो रही थी कि दरवाजा
खोला जाए। इतना तो सब समझ गए थे कि गालियाँ हवेली के अन्दर से ही चलाई जा रही हैं। पर कहाँ से?
सुखवंत सिंह ने दूर से ही अपनी हवेली के बाहर भीड़ देख ली थी। मामला तो समझ में नहीं आया पर भीड़ देखकर किसी अनिष्ट की आशंका से दोनों पति-पत्नी के चेहरे फक्क पड़ गए, ‘‘हे वाहे गुरू!’’ दोनों के मुँह से एक साथ निकला। और वे लगभग दौड़कर घर के पास पहुँचे। पुलिस इंस्पेकर ने कहा, ‘‘पता नहीं भीतर क्या हुआ है पर सुना है नौ गालियाँ चली हैं। लगता है कुछ लोग मरे भी होंगे। पर कोई दरवाजा नहीं खोल रहा, अच्छा हुआ आप लोग आ गए वरना अब हम दरवाजा तोड़ने ही वाले थे।’’
‘‘पर उस हालत में आप लोग गोली का शिकार हो जाते। अच्छा हुआ आपने दरवाजा नहीं तोड़ा।’’ सुखवंत सिंह थोड़ा मुस्कुराए, रुकिए, मैं खुलवाता हूँ दरवाजा।’’ वे भागकर सामने वाले घर की छत पर चढ़ गए और वहाँ से चिल्लाकर बोले, ‘‘सतविन्दर, गोली मत चलाना बेटा, हम आ गए हैं।’’
फर वे जब तक दरवाजे के पास आए, दरवाजा खुल गया। यह उन छिपे हुए गुण्डों ने खोला था। वे भी समझ गए थे कि अब बचाव का कोई साधन नहीं है। इंस्पेक्टर और भी हैरान हो रहा था, ‘‘आपका मतलब है आप जानते हैं गोली किसने चलाई है।’’
‘‘हाँ जी, और यह भी जानता हूँ कि कहाँ से चली है। आओ, दिखाता हूँ और वे इंस्पेक्टर को साथ लेकर ऊपर वाले कमरे में गए, जहाँ एक लकड़ी का बड़ा-सा बक्स तिरछा रखा था। इसी के पीछे कुछ सीढ़ियाँ नीचे उतरती थीं। इन्हीं सीढ़ियों के अंत में एक दुछत्ती में सतविंदर दुबकी बैठी थी। बंदूक अभी तक उसके हाथ में थी।
अब सुखवंत सिंह ने पुलिस इंस्पेक्टर को बताया कि यह हवेली उनके पुरखों ने इस हिसाब से बनाई थी कि कोई चोर-डकैत उनका कोई नुकसान न कर सके। बारह साल से पहले किसी बच्चे को इसका राज़ नहीं बताया जाता। सतविंदर को भी इस लोहड़ी ;मकर संक्रान्तिद्ध पर ही हमने यह बात बताई थी। वरना इसे भी क्या पता था। माता-पिता को देखकर सतविन्दर दहाड़ मार रो पड़ी और भागकर पिता की टांगों से
चिपक गई। हरनाम कौर ने प्यार से सिर पर हाथ पफेरते हुए कहा, ‘‘झल्ली, रोती क्यों है? तू तो हमारी बहादुर बच्ची है। बिल्कुल ठीक किया तूने।’’
तभी पुलिस इंस्पेक्टर ने अपने गले से गोलियों की माला उतार कर सतविन्दर के गले में डाल दी। ‘‘सच में हमारी बहादुर बच्ची है। शाबाश।’’

— आशा शैली

*आशा शैली

जन्मः-ः 2 अगस्त 1942 जन्मस्थानः-ः‘अस्मान खट्टड़’ (रावलपिण्डी, अब पाकिस्तान में) मातृभाषाः-ःपंजाबी शिक्षा ः-ललित महिला विद्यालय हल्द्वानी से हाईस्कूल, प्रयाग महिलाविद्यापीठ से विद्याविनोदिनी, कहानी लेखन महाविद्यालय अम्बाला छावनी से कहानी लेखन और पत्रकारिता महाविद्यालय दिल्ली से पत्रकारिता। लेखन विधाः-ः कविता, कहानी, गीत, ग़ज़ल, शोधलेख, लघुकथा, समीक्षा, व्यंग्य, उपन्यास, नाटक एवं अनुवाद भाषाः-ः हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, पहाड़ी (महासवी एवं डोगरी) एवं ओडि़या। प्रकाशित पुस्तकंेः-1.काँटों का नीड़ (काव्य संग्रह), (प्रथम संस्करण 1992, द्वितीय 1994, तृतीय 1997) 2.एक और द्रौपदी (काव्य संग्रह 1993) 3.सागर से पर्वत तक (ओडि़या से हिन्दी में काव्यानुवाद) प्रकाशन वर्ष (2001) 4.शजर-ए-तन्हा (उर्दू ग़ज़ल संग्रह-2001) 5.एक और द्रौपदी का बांग्ला में अनुवाद (अरु एक द्रौपदी नाम से 2001), 6.प्रभात की उर्मियाँ (लघुकथा संग्रह-2005) 7.दादी कहो कहानी (लोककथा संग्रह, प्रथम संस्करण-2006, द्वितीय संस्करण-2009), 8.गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतन्त्रता सेनानियों की जीवनियाँ-2007), 9.हमारी लोक कथाएं भाग एक से भाग छः तक (2007) 10.हिमाचल बोलता है (हिमाचल कला-संस्कृति पर लेख-2009) 11. सूरज चाचा (बाल कविता संकलन-2010) 12.पीर पर्वत (गीत संग्रह-2011) 13. आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी (नारी विषयक लेख-2011) 14. ढलते सूरज की उदासियाँ (कहानी संग्रह-2013) 15 छाया देवदार की (उपन्यास-2014) 16 द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह) प्रेस में प्रकाशनाधीन पुस्तकेंः-द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह), सुधि की सुगन्ध (कविता संग्रह), गीत संग्रह, बच्चो सुनो बाल उपन्यास व अन्य साहित्य, वे दिन (संस्मरण), ग़ज़ल संग्रह, ‘हण मैं लिक्खा करनी’ पहाड़ी कविता संग्रह, ‘पारस’ उपन्यास आदि उपलब्धियाँः-देश-विदेश की पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों से निरंतर प्रसारण, भारत के विभिन्न प्रान्तों के साहित्य मंचों से निरंतर काव्यपाठ, विचार मंचों द्वारा संचालित विचार गोष्ठियों में प्रतिभागिता। सम्मानः-पत्रकारिता द्वारा दलित गतिविधियों के लिए अ.भा. दलित साहित्य अकादमी द्वारा अम्बेदकर फैलोशिप (1992), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां (प्रतापगढ़) द्वारा साहित्यश्री’ (1994) अ.भा. दलित साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा अम्बेदकर ‘विशिष्ट सेवा पुरुस्कार’ (1994), शिक्षा साहित्य कला विकास समिति बहराइच द्वारा ‘काव्य श्री’, कजरा इण्टरनेशनल फि़ल्मस् गोंडा द्वारा ‘कलाश्री (1996), काव्यधारा रामपुर द्वारा ‘सारस्वत’ उपाधि (1996), अखिल भारतीय गीता मेला कानपुर द्वारा ‘काव्यश्री’ के साथ रजत पदक (1996), बाल कल्याण परिषद द्वारा सारस्वत सम्मान (1996), भाषा साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा ‘साहित्यश्री’ (1996), पानीपत अकादमी द्वारा आचार्य की उपाधि (1997), साहित्य कला संस्थान आरा-बिहार से साहित्य रत्नाकर की उपाधि (1998), युवा साहित्य मण्डल गा़जि़याबाद से ‘साहित्य मनीषी’ की मानद उपाधि (1998), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां से आचार्य ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ सम्मान (1998), ‘काव्य किरीट’ खजनी गोरखपुर से (1998), दुर्गावती फैलोशिप’, अ.भ. लेखक मंच शाहपुर (जयपुर) से (1999), ‘डाकण’ कहानी पर दिशा साहित्य मंच पठानकोट से (1999) विशेष सम्मान, हब्बा खातून सम्मान ग़ज़ल लेखन के लिए टैगोर मंच रायबरेली से (2000)। पंकस (पंजाब कला संस्कृति) अकादमी जालंधर द्वारा कविता सम्मान (2000) अनोखा विश्वास, इन्दौर से भाषा साहित्य रत्नाकर सम्मान (2006)। बाल साहित्य हेतु अभिव्यंजना सम्मान फर्रुखाबाद से (2006), वाग्विदाम्बरा सम्मान हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से (2006), हिन्दी भाषा भूषण सम्मान श्रीनाथद्वारा (राज.2006), बाल साहित्यश्री खटीमा उत्तरांचल (2006), हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान, (2007) में। हिन्दी भाषा सम्मेलन पटियाला द्वारा हज़ारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान (2008), साहित्य मण्डल श्रीनाथद्वारा (राज.) सम्पादक रत्न (2009), दादी कहो कहानी पुस्तक पर पं. हरिप्रसाद पाठक सम्मान (मथुरा), नारद सम्मान-हल्द्वानी जिला नैनीताल द्वारा (2010), स्वतंत्रता सेनानी दादा श्याम बिहारी चैबे स्मृति सम्मान (भोपाल) म.प्रदेश. तुलसी साहित्य अकादमी द्वारा (2010)। विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ द्वारा भारतीय भाषा रत्न (2011), उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा सम्मान (2011), अखिल भारतीय पत्रकारिता संगठन पानीपत द्वारा पं. युगलकिशोर शुकुल पत्रकारिता सम्मान (2012), (हल्द्वानी) स्व. भगवती देवी प्रजापति हास्य-रत्न सम्मान (2012) साहित्य सरिता, म. प्र. पत्रलेखक मंच बेतूल। भारतेंदु साहित्य सम्मान (2013) कोटा, साहित्य श्री सम्मान(2013), हल्दीघाटी, ‘काव्यगौरव’ सम्मान (2014) बरेली, आषा षैली के काव्य का अनुषीलन (लघुषोध द्वारा कु. मंजू षर्मा, षोध निदेषिका डाॅ. प्रभा पंत, मोतीराम-बाबूराम राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी )-2014, सम्पादक रत्न सम्मान उत्तराखण्ड बाल कल्याण साहित्य संस्थान, खटीमा-(2014), हिमाक्षरा सृजन अलंकरण, धर्मषाला, हिमाचल प्रदेष में, हिमाक्षरा राश्ट्रीय साहित्य परिशद द्वारा (2014), सुमन चतुर्वेदी सम्मान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा (2014), हिमाचल गौरव सम्मान, बेटियाँ बचाओ एवं बुषहर हलचल (रामपुर बुषहर -हिमाचल प्रदेष) द्वारा (2015)। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रदत्त ‘तीलू रौतेली’ पुरस्कार 2016। सम्प्रतिः-आरती प्रकाशन की गतिविधियों में संलग्न, प्रधान सम्पादक, हिन्दी पत्रिका शैल सूत्र (त्रै.) वर्तमान पताः-कार रोड, बिंदुखत्ता, पो. आॅ. लालकुआँ, जिला नैनीताल (उत्तराखण्ड) 262402 मो.9456717150, 07055336168 [email protected]