कविता : ब्याहता
मेरे बालों के बीच
एक रक्ताभ रेखा खींची है
सिंदूर की,प्रतीक है मेरे
ब्याहता होने की
कहीं मंगलसूत्र पहना कर
कहीं नाक में बेसर
कहीं अंगूठी
किसी न किसी रूप में
जग जाहिर किया जाता रहा
कि हम ब्याहता है, कुंवारी नहीं
पुरूषों ने अहं की तुष्टि के लिए
या हम सबों की सुरक्षा के वास्ते
प्रतीकों का सहारा लिया
साथ ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष
वर्जनाओं से बांध दिया
ब्याह होते सब कुछ बदल गया
बचपना और युवावस्था की बातें
न जाने जीवन से दूर चली गई
मैं एक शांत तालाब सी बन गई
एक सुनहला दुनिया पाकर मैं
खुशी से फूली नहीं समायी
सोने का पिंजरा भी कभी-कभी
पाखी को नहीं भाता
वैसे ही एक दिन,वर्जनाओं को तोड़
निकल पड़ी आसमान छूने
पर जाती कहां?कैसे?
दुनिया विस्तृत नजर आया
बेजान महसूस किया
परकटी पंक्षी की तरह
लौट आई अपने नीड़ में।
— मंजु लता