कविता

कविता : ब्याहता

मेरे बालों के बीच
एक रक्ताभ रेखा खींची है
सिंदूर की,प्रतीक है मेरे
ब्याहता होने की
कहीं मंगलसूत्र पहना कर
कहीं नाक में बेसर
कहीं अंगूठी
किसी न किसी रूप में
जग जाहिर किया जाता रहा
कि हम ब्याहता है, कुंवारी नहीं
पुरूषों ने अहं की तुष्टि के लिए
या हम सबों की सुरक्षा के वास्ते
प्रतीकों का सहारा लिया
साथ ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष
वर्जनाओं से बांध दिया
ब्याह होते सब कुछ बदल गया
बचपना और युवावस्था की बातें
न जाने जीवन से दूर चली गई
मैं एक शांत तालाब सी बन गई
एक सुनहला दुनिया पाकर मैं
खुशी से फूली नहीं समायी
सोने का पिंजरा भी कभी-कभी
पाखी को नहीं भाता
वैसे ही एक दिन,वर्जनाओं को तोड़
निकल पड़ी आसमान छूने
पर जाती कहां?कैसे?
दुनिया विस्तृत नजर आया
बेजान महसूस किया
परकटी पंक्षी की तरह
लौट आई अपने नीड़ में।

— मंजु लता

डॉ. मंजु लता Noida

मैं इलाहाबाद में रहती हूं।मेरी शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई है। इतिहास, समाजशास्त्र,एवं शिक्षा शास्त्र में परास्नातक और शिक्षा शास्त्र में डाक्ट्रेट भी किया है।कुछ वर्षों तक डिग्री कालेजों में अध्यापन भी किया। साहित्य में रूचि हमेशा से रही है। प्रारम्भिक वर्षों में काशवाणी,पटना से कहानी बोला करती थी ।छिट फुट, यदा कदा मैगज़ीन में कहानी प्रकाशित होती रही। काफी समय गुजर गया।बीच में लेखन कार्य अवरूद्ध रहा।इन दिनों मैं विभिन्न सामाजिक- साहित्यिक समूहों से जुड़ी हूं। मनरभ एन.जी.ओ. इलाहाबाद की अध्यक्षा हूं। मालवीय रोड, जार्ज टाऊन प्रयागराज आजकल नोयडा में रहती हैं।