अभागिन
लोग हवा में तैरती रस्सी पर चलती उस छोटी सी लड़की को देख कर दांतों तले अंगुली दबा कर कह रहे थे-
“क्या गज़ब की एकाग्रता है साहब… क्या जोश, क्या हिम्मत है बच्ची की। ज़रा सा ध्यान हिला नहीं कि बच्ची नीचे”
उस बच्ची के कदम चाचा द्वारा बजाए जा रहे ढोल पर बढ़े जा रहे थे पर ध्यान कहीं और ही था।
“पैदा होते ही खा गयी थी भागोंजली अपनी माँ को… और लो अब बाप भी हार मान गया।”
माँ उसके जन्म के कुछ समय बाद ही चल बसी थी तो माँ के लिए तो वो खुद को ज़िम्मेदार …. पर पिता की मृत्यु पर तो उसके तीन छोटे सौतेले भाई बहन भी थे फिर अब भी उसके भाग्य का दोष कैसे था ये उसकी दस बरस की उम्र को समझ ही नहीं आया।
पिता के जाने के बाद पिछले कुछ बरसों में सौतेली माँ का लाड़ उस पर दो बार रेगिस्तान की जलती मरुभूमि में बारिश की तरह तब बरसा जब उसके ब्याह की बात चली। उसकी मरी हुई माँ का वास्ता दे कर एक एक करके दोनों बहनें ब्याह दी गईं और फिर उसके कानों ने सुना
“काश इसके भाग्य में भी कोई लिखा होता … चाहे अंधा, कुबड़ा ही सही … तो सिर से बोझ तो उतरता।”
और अब फिर एक बार माँ ने प्यार से सिर पर हाथ फेरा था… भाई के द्वारा किये गए एक छोटे से अपराध को अपने जिम्मे लेने के लिए। जेल में ज्यादा परेशानी नही हुई उसे। यहाँ का माहौल घर से कुछ बेहतर ही था। और फिर दो महीने की ही तो बात थी… उसे सिर्फ अपने काम से काम था।
“ए इधर सुन….”
“अरी नाम क्या है तेरा और किस जुर्म की सज़ा हुई है तुझे ?” उसे लगन से काम करते देख दूसरी महिला कैदी पूछ बैठी
“अभागिन” दोनों प्रश्नों के उत्तर में सिर्फ एक संक्षिप्त और सटीक शब्द कह कर वो फिर अपने काम मे जुट गई।