गज़ल
न जाने आज क्यों हूँ अश्कबार थोड़ा-सा
भरा हुआ है सीने में गुबार थोड़ा-सा
घुल गया ये कौन सा ज़हर हवाओं में
हर शख्स इस शहर का है बीमार थोड़ा-सा
मेरी वजह से सिर्फ ये रिश्ता नहीं टूटा
तू भी तो है इसका जिम्मेदार थोड़ा-सा
ज़िंदगी होती है उसकी ज्यादा ही मुश्किल
होता है जो भी आजकल खुद्दार थोड़ा-सा
दौलत का हो ताकत का शोहरत का या मय का
हर कोई है नशे का परस्तार थोड़ा-सा
कैसे उठाऊँ और किसी पर मैं ऊँगली जब
मेरा ज़मीर भी है गुनाहगार थोड़ा-सा
— भरत मल्होत्रा