कविता

साजिशों का समंदर

बड़े करीब जाकर ये समझ आया हमको, कितना गहरा है साज़िशों का समंदर।
कि अब तो डूब कर हासिल किनारा होगा, कुछ यूं फंसे हैं हम इस दरिया के अंदर।
हमारे ही जज़्बातों ने शिकस्त दे दी हमको,
वरना हरा न पाया था कभी मुश्किलों का बवंडर।
यकीन पर भी यकीन करने से अब तो डर लगने लगा है,
अच्छाई के नकाब में इस कदर छुपा है बुराई का मंजर।
ये दस्तूर है ज़िन्दगी का कुछ भी साथ नहीं जाता
पूरी दुनिया जीतकर भी खाली हाथ गया था सिकंदर।
— रूपल सिंह ‘भारतीय नारी’

रूपल सिंह 'भारतीय नारी'

पता- सफीपुर, उन्नाव, उत्तर प्रदेश मेल- singhrupal327@gmail.com