कविता – मैं जीतता कैसे ?
उड़ान उसके संग
मैंने भी भरी थी
पंख मैंने भी फड़फड़ाये
उसके संग
पर वो मंजिल पा गया
मैं रह गया अधबीच में
उसके संग लगन थी
विश्वास था
मेरे संग
ना मन था न श्रेष्ठ प्रयास
फिर मैं जीतता कैसे ?
केवल पंखों से … नहीं ,
जो भी ना दे पाये
ज्यादा देर मेरा साथ
वो जीत कर दे रहा था
ईश्वर को धन्यवाद
मैं खीज कर देता रहा
दोष अपने भाग्य को
लगन संग जीत होती है
अरुचि और आलस्य संग
होती है सदा हार
केवल हार
मेरे मन, कर विचार …
— व्यग्र पाण्डे