ग़ज़ल
उनके दस्तूर सबसे निराले रहे।
जान लेवा सदा रोग पाले रहे।
धुनहमेशा जो मंज़िलकी पाले रहे।
पाँव में हर समय उनके छाले रहे।
साफ किरदार उनका रहा हर घड़ी,
साथ पर ज़िन्दगी भर बवाले रहे।
साफ़ खादी पहनते रहे उम्र भर,
दिलमगर जो थे काले वो काले रहे।
सोचके सख्तथे परसमझ थी नरम,
बन के हरदम रुई के वो गाले रहे।
कामयाबी उन्हें छू के निकली नहीं,
काम कल पर हमेशा जो टाले रहे।
एक मंज़िल पे जाकर रुके ही नहीं,
ख़्वाब आँखों में नव एक पाले रहे।
डाँटफटकार मिलनी है उसकोसदा,
काम पेंडिंग सरासर जो डाले रहे।
आमने सामने जंग होती नहीं,
बरछियाँ हाथ में अब न भाले रहे।
धूर्त मानव हुआ आदमीयत गयी,
मस्जिदें हर क़दम औ शिवाले रहे।
स्वाद आना न था स्वाद आया नहीं,
खूब भर भर मसाले यूँ डाले रहे।
— हमीद कानपुरी