पत्थर तोड़ती मैं कर्मठ नारी
मत समझो मुझको बेचारी।
सीने में दिल मैं भी रखती हूँ
मेरी भी बिटिया बड़ी दुलारी।
पाल पोस कर बड़ा करूगीं
अपने बल पर खड़ा करूगीं।
तराश कर इन पत्थरों को
महल तुम्हारे खड़े करूगीं।
मत समझो कोमलांगी मुझको
मैंने अट्टालिकाएं रच डाली।
दिन रात बैठकर इस धरती पर
कण-कण की पूजा कर डाली।
ये पत्थर ही मेरा घर द्वार
मेरा बिस्तर भी ये पत्थर।
आती थी संग में माँ के मैं
याद मुझे अब तक वे मंजर।
कर रही पीढ़ी दर पीढ़ी
मेहनत कश इस काम को।
बना रही पत्थर से पत्थर
नरम नाजुक इन हाथ को।
छू कर जाती हर महल को
अपना अंश पा जाती मैं।
देखे जाने पर मालिक के
भय से सहम जाती मैं।
मेरे हाथों बनी इमारत
पर छूने का हक नहीं।
कुछ पल ठहर जी भर देखूँ
यह भी मेरी नियति नहीं।
क्यों गढ़ा विधाता ने मुझको
सोचती रहती हूँ दिन-रात।
रचती न ये महल दुमहले
कटती कहाँ तुम्हारी रात।
— निशा नंदिनी भारतीय