क्या करूँ
दूर नज़रो से नज़र है क्या करूँ
आसमाँ से गुम क़मर है क्या करूँ
दीद की हसरत में हूँ ज़िंदा यहाँ –
ज़िन्दगानी पुरखतर है क्या करूँ
दहशतों में घुट रही इन्सानियत –
रूह पर ऐसा असर है क्या करूँ
प्यार की राहों में लाखों खार हैं –
पर भली लगती डगर है क्या करूँ
इस कदर बिखरी हुयी है ज़िंदगी –
आबे जम जम भी ज़हर है क्या करूँ
चाहतें मिटती मिटाने से नहीं –
ये मोहब्बत का असर है क्या करूँ
दिल ने चाहा हसरतें ज़िंदा रहे –
उनकी चाहत में कसर है क्या करूँ
— मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल’