पुलिंदा
कितना मिलता है ये
बिखरे हुए कपड़ों का पुलिंदा
मेरे बेतरतीब ख़्यालों से
संगवाने को संगवा भी लेती हूँ
पर, फिर बिखर जाता है ये कुछ ही पलों में |
दरअसल, मैं ही नहीं चाहती-
किसी होटल के आलिशान कमरे की तरह
मेरा ‘कमरा’, मेरा ‘घर’ भी हर पल ‘टिच’ रहे
आते-जाते क़दमों की थाप
बच्चों-बड़ों की चहक, पकवानों की महक
यहाँ-वहाँ एहसासात की गर्माहट
मैं चाहती हूँ –
मेरा घर, ‘घर’ रहे
अच्छा लगता है मुझे ये ढेर कपड़ों का
जैसे एक पोटली ख़्यालों की|
जब चाहा चुन लिया ख़याल एक
और बुन ली कविता नयी
— पूनम माटिया