कविता

पुलिंदा

कितना मिलता है ये
बिखरे हुए कपड़ों का पुलिंदा
मेरे बेतरतीब ख़्यालों से
संगवाने को संगवा भी लेती हूँ
पर, फिर बिखर जाता है ये कुछ ही पलों में |
दरअसल, मैं ही नहीं चाहती-
किसी होटल के आलिशान कमरे की तरह
मेरा ‘कमरा’, मेरा ‘घर’ भी हर पल ‘टिच’ रहे
आते-जाते क़दमों की थाप
बच्चों-बड़ों की चहक, पकवानों की महक
यहाँ-वहाँ एहसासात की गर्माहट
मैं चाहती हूँ –
मेरा घर, ‘घर’ रहे
अच्छा लगता है मुझे ये ढेर कपड़ों का
जैसे एक पोटली ख़्यालों की|
जब चाहा चुन लिया ख़याल एक
और बुन ली कविता नयी

— पूनम माटिया

डॉ. पूनम माटिया

डॉ. पूनम माटिया दिलशाद गार्डन , दिल्ली https://www.facebook.com/poonam.matia [email protected]