गीतिका
वो माँ मौत मांग रही थी आज अपने लिये।
चराग की रौशनी में जिसने कपड़े सिये।।
अब उसकी आँखों में रौशनी कहां थी।
टिमटिमाते थे सिर्फ आँखों के दिये।।
हाथों मे कम्पन था उसके तो बेहिसाब।
सोचती थी कौन रात भर रोकर जिये।।
जो जुबां शोर करती थी दिन रात।
तरसती है दर्द अपना कहने के लिये।।
दर्द था कहाँ आँखों मे अब किसी के।
हर इंसाँ अपनी छाया देखकर जिये।।
थी औलाद अनगिनत उसकी मगर।
बेबसी ने उन सबके लब थे सी दिये।।
— प्रीती श्रीवास्तव