मुस्कान (लघुकथा)
छोटी देवरानी ने ‘भाभी जी, दिवाली मुबारक हो’ कहते हुए घर में प्रवेश किया और दिये जलाती हुई जाह्नवी की मदद करने लगी.
जाह्नवी से दूर रहते हुए भी वह उसके मन के पास थी और यदा-कदा मिलने पर अपनी व्यथा को साझा करने का अवसर नहीं गंवाती थी. आज भी ऐसा ही हुआ!
”मंझली तो नीचे ही रहती है, पर अभी तक आई नहीं!” वह बोली.
”भाभी जी, सच पूछें न, तो मैं उससे दूर ही रहना पसंद करती हूं. वह ही मुझे जन्मदिन पर विश करती हैं, जब उसकी बेटियां आती हैं, तो आपसे पहले मेरे पास लाती हैं.” वह बोलती जा रही थी.
”जब इनका शरीर शांत हुआ था, तो उसकी बेटियां इतना दूर रहते हुए भी फट से पहुंच गई थीं.”
”वह सोचती है कि मेरे कोई संतान नहीं है, तो मैं अपना माल-सम्पत्ति उसकी बेटियों के नाम कर जाऊंगी!” उसकी आंखों में आंसू घिर-घिर आए थे.
”यह बात वह भूल जाती है, कि हमारी शादी से पहले उसने मेरे पति के एक-एक अन्न के दाने का हिसाब ले लिया था, दूध की एक-एक बूंद की गिनती गाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.” खुशी का इतना बड़ा पर्व होते हुए भी व्यथा ने जलधार का रूप ले लिया था.
तभी ”हैप्पी दिवाली भाभी जी.” कहती हुई मंझली ने प्रवेश किया. उसने भी ओढ़ी हुई मुस्कान से उसका स्वागत किया, पर दियों के उजाले में उसके आंसू रोशन हो उठे थे.
यह असलियत भी है. दुःखद यादें खुशी के पर्व पर भी सताती हैं, ओढ़ी हुई मुस्कान में व्यथा की झलक साफ नजर आ जाती है.