आखिर क्यों?
कई दिनों से नोटिस कर रही थी, कक्षा में हमेशा चहकने वाली सुमन आजकल गुमसुम रहने लगी थी । एक दो बार मैंने उसकी उदासी का कारण जानना चाहा तो उसने मुझे यह कहकर टाल दिया कि कोई खास बात नहीं है, बस थोड़ी तबीयत ठीक नहीं लग रही है । मुझे उसका उत्तर संतोषजनक नहीं लगा। दिन ब दिन उसका चेहरा बोझिल होता जा रहा था । कक्षा कक्ष में वह अनमने भाव से बैठी रहती। विद्यालयीन गतिविधियों में भी उसने सहभागिता करना कम कर दिया था। उसकी यह हालत देखकर मन व्यथित हो जाता था। आखिर ऐसी कौन सी बात है जो उसे अंदर ही अंदर इतना परेशान कर रही है कि न तो वह किसी से कह पा रही है और न ही भुला पा रही है। लेकिन काम की व्यस्तता के चलते मैंने भी दोबारा उससे इस विषय में चर्चा नहीं की।
विद्यालय में तिमाही परीक्षा चल रही थी मेरी ड्यूटी जिस कक्ष में थी सुमन का रोल नंबर भी उसी कक्ष में था । पिछले कुछ दिनों से वह अनुपस्थित थी इसलिए जब उसने मुझे मुस्कुराते हुए प्रणाम किया तो मेरा गुस्सा फूट पड़ा। मैंने कहा, “इतने दिनों से स्कूल नहीं आ रही थी अब परीक्षा देने क्यों आई हो? मेरे विषय का रिजल्ट खराब करने ? इससे अच्छा तो आज भी न आती।” मेरा यह गुस्सा इसलिए प्रकट हुआ कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में बिना किसी अन्य कारण पर विचार किए खराब परिणाम का जिम्मेदार शिक्षक को ठहरा दिया जाता है और तरह-तरह की कार्यवाही कर अपमानित किया जाता है। मेरे डांटने पर उसकी आंखों में आंसू छलक आए और वह बोली, “मैडम मैं आपसे परीक्षा के बाद मिलना चाहती हूं, मुझे आपसे कुछ बात करनी है। क्या आप मुझसे 10 मिनट के लिए मिल सकती हैं?” मुझे अपने ऊपर बहुत गुस्सा आया कि जिसके लिए मैं इतनी परेशान थी उसी के ऊपर शासकीय व्यवस्था की पूरी खीझ निकाल दी । मैंने हामी भर दी और परीक्षा के बाद उसे स्टाफ रूम में मिलने को कहा।
परीक्षा के उपरांत प्रवेश की अनुमति लेकर वह अंदर आई तो मैंने उसे सामने रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया वह सकुचाते हुए धीरे से बैठ गई । मैं भी उठकर उसके निकट जाकर बैठ गई। “क्या बात है? क्या बात करना चाहती हो ?” मैंने पूछा। वह मुझे कुछ असहज सी लगी ।कुछ घबराई हुई भी। “तुम मुझे बता सकती हो ,मुझ पर भरोसा कर सकती हो। हो सकता है मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं।” उसके कंधे पर हाथ रखते हुए मैंने कहा। मेरी बात सुनकर वह फूट-फूट कर रोने लगी। मैं घबरा गई लेकिन मैंने उसे रोने दिया। रोका नहीं कि शायद मन का गुबार निकल जाएगा तो वह बात करने की स्थिति में आ पाएगी । कुछ देर बाद जब यह सामान्य हुई तो मैंने उसे पूरी बात बताने के लिए कहा।
“मैम, मेरे पापा मेरे साथ गंदा काम करते हैं, मुझे अच्छा नहीं लगता है ।” कहकर वह फिर से रोने लगी ।
उसकी बात सुनकर मैं अवाक रह गई ।” यह क्या कह रही हो तुम ? क्या यह तुम्हारी सौतेले पिता हैं?” मैंने प्रश्न किया। आंसू पूछते हुए उसने कहा ,”नहीं मैम, वो मेरे सगे पापा हैं।” मैंने स्तब्ध भाव से प्रश्न किया, “क्या इस विषय में तुम्हारी मम्मी को पता है?” “हां मैम ,उन्हें पता है लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकती हैं। उसने कहा। उन्होंने विरोध करने का प्रयास किया था लेकिन पापा ने हम लोगों को घर से निकालने और जान से मारने की धमकी दी, तो वो क्या करती । मेरे दो छोटे भाई भी हैं। आखिर उन्हें उनके भविष्य के बारे में भी सोचना पड़ेगा । वैसे भी हमारी बातों पर परिवार के लोग भरोसा भी नहीं करेंगे यही सोच कर वह चुप हैं।
मुझे न जाने क्यों सुमन की मां पर बहुत अधिक क्रोध आ रहा था कि एक मां होकर भी वह अपने बच्ची के साथ हो रहे दुराचार के विरुद्ध आवाज क्यों नहीं उठा रही हैं क्योंकि मां तो बच्चों के लिए बड़ी से बड़ी विपत्ति से भी लड़ जाती है। अपनी भावनाओं को नियंत्रित करते हुए मैंने सुमन से कहा कि एक बार वह अपनी मम्मी को मुझसे अवश्य मिलवाए। उसने कहा , ठीक है मैम मैं अगले पेपर में उनको किसी बहाने से साथ लाऊंगी क्योंकि वैसे तो पापा उन्हें आने नहीं देंगे । मैंने उसे घर जाने को कहा।
अगले पेपर में लंबा सा घूंघट ताने एक दुबली पतली महिला सुमन के साथ मुझसे मिलने आई। मैंने समझने में तनिक भी देर न की कि निश्चित तौर पर यह उसकी मम्मी है। मैंने उन्हें बैठने को कहा और सुमन को कक्षा में भेज दिया ।” आप अपनी बेटी के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को चुपचाप कैसे सह सकती हैं ?” मैंने प्रश्न किया और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए बोलती गई चली गई कि कभी आपने सोचा है सुमन को कैसा लगता होगा जब उसका संरक्षक (पिता) ही उसका शोषण कर रहा है। वह शारीरिक और मानसिक तौर पर लगातार टूट रही है। उसका भविष्य अंधकार मय हो रहा है । इस बात की आपको कोई परवाह है या नहीं? उन्होंने उत्तर दिया परवाह तो है लेकिन मैं ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं हूं । यदि उन्होंने मुझे छोड़ दिया तो मैं इन लोगों को कैसे पालूंगी? मैंने उन्हें समझाया कि डरने की कोई बात नहीं है, सब ठीक हो जाएगा। मेरी एक सहेली कि आपके इलाके के थाना प्रभारी से घरेलू पहचान है। आप मेरे साथ चल कर अपने पति के विरुद्ध रिपोर्ट लिखवाई जिससे कि सुमन को भविष्य की ज्यादतियों से बचाया जा सके। वे आपका और आपके बच्चों का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे। मैं आपके साथ हूं ।
यह बात सुनकर वह बोली ,”अरे नहीं ,मुझे पुलिस के चक्कर में नहीं पड़ना ।वह मुझे और बच्चों को जान से मार देंगे।” मेरे लाख समझाने के बावजूद भी वह तैयार नहीं हुई तो मैंने कहा, ठीक है आप सुमन को उसके ननिहाल ले जाइए । अगले वर्ष तक वह 18 साल की (बालिग) हो जाएगी आप उसका विवाह करवा दीजिए। कम से कम अपने पिता के हाथों बेइज्जत होने से बच जाएगी। उन्होंने उत्तर दिया कि मायके वाले काफी गरीब हैं और वह उनके पास नहीं जा सकती है। सुमन के भाग्य में जो लिखा है वह तो उसे भोगना ही पड़ेगा। कहकर वह जाने लगी तो मैंने कहा, यदि आप स्वयं नहीं जाएंगी तो आप लोगों के खिलाफ मैं ही रिपोर्ट लिखवाऊंगी। वह कुछ देर तक सोचने के बाद बोली ,लेकिन इसका कोई फायदा नहीं होगा। मैं और सुमन पुलिस के आगे आपकी बात का समर्थन नहीं करेंगे और अपनी बात से टल जाएंगे। बेकार में आपकी ही बदनामी होगी । आप यहां नौकरी करने आई है बेकार में ही गांव वालों को अपना दुश्मन बना बैठेंगी। माफ कीजिए हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए ।कह कर वह चली गई। मैं जड़वत खड़ी रह गई।
इस घटना के कुछ महीनों बाद मेरा तबादला हो गया और मैं वहां से चली आई । लेकिन आज भी कभी-कभी सुमन का वह चेहरा मेरी आंखों के सामने आ जाता है। काश सुमन की मा ने जरा सी हिम्मत जुटाई होती और अपनी बेटी को भी साहस दिया होता, अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का तो उसे उस नरकीय जीवन से मुक्ति मिल गई होती। सुमन का क्या हुआ ? इसकी कोई जानकारी नहीं है । एक टीस सी उठती है कि आखिर क्यों नहीं समझा सकी मैं उन्हें ? क्यों नहीं जुटा पाई वह अन्याय के विरुद्ध आवाज? क्या अन्याय सहना अन्याय करने जितना ही दंडनीय नहीं है? महिला सशक्तिकरण के इस दौर में आखिर घरेलू स्तर पर इतनी अशक्तता क्यों ??
— कल्पना सिंह