हर तरफ विवादों की गली है
रिश्तों में दीमक लगने लगी है
बिखरते रिश्ते उड़ता धुआं
जलने की महक आने लगी है।
धीरज से रहना आता नहीं है
अपनों का साथ भाता नहीं है
सिकुड़ा सिमटता सहमा समां
कड़ी से कड़ी जुड़ती नहीं है।
भटकता चटकता हर मनुज है
किसी को नहीं किसी की सुध है
धड़कता चहकता दिल में अरमां
हर ओर ईर्ष्या द्वेष का दनुज है।
आंखों पर रंगीन चश्मा चड़ा है
सोच पर सबकी ताला पड़ा है
व्यर्थ की बातों का करके घुमां
सूने सन्नाटों का महल खड़ा है।
हाथ को हाथ नहीं सूझता है
संघर्ष की आग नहीं जूझता है
बुजुर्गों की नहीं अब तो दुआ
वृद्धाश्रम में कौन बूझता है।
ले पशु-पक्षियों से प्रेम उधार
हर कड़ी रिश्तों की ले सुधार
टूटे न रिश्तों की डोर कभी
मुहब्बत के रंगों से ले संवार।
— निशा नंदिनी