गुरुकुल न होते वेद और शास्त्रों की रक्षा सहित धर्म रक्षा होनी सम्भव नहीं थी
ओ३म्
मनुष्य के जीवन में शरीर और आत्मा दोनों का महत्व होता है। यदि शरीर न रहे तो आत्मा का महत्व नहीं और आत्मा न रहे तो शरीर का महत्व नहीं होता। इसी प्रकार महत्व में दोनों एक दूसरे के पूरक हैं तथापि शरीर से आत्मा के निकल जाने पर शरीर महत्वहीन हो जाता है और उसका दाह संस्कार कर दिया जाता है। शरीर आत्मा का साधन है जो उसे ज्ञान व सुख प्राप्ति सहित मोक्ष प्राप्त कराता है। बिना स्वस्थ शरीर के मनुष्य सुख नहीं भोग सकता। इसलिये मनुष्य अर्थात् आत्मा को अपने शरीर की रक्षा पर भी ध्यान देना होता है। इसके साथ ही आत्मा को ज्ञानयुक्त करने के लिये वेदाध्ययन करना परम आवश्यक है। यदि वेदाध्ययन कर ईश्वर, जीवात्मा, सृष्टि, जीवात्मा के उद्देश्य व लक्ष्य सहित मनुष्य जीवन में ईश्वर की प्राप्ति के महत्व व उपायों को नहीं जानेंगे व समझेंगे तो हम अपने जीवन व शरीर का लाभ नहीं उठा सकते। आत्मा का मुख्य उद्देश्य ईश्वर व जीवात्मा सहित संसार को यथार्थ रूप में जानना है। यह ज्ञान वेदाध्ययन व ऋषियों के बनाये दर्शन एवं उपनिषद, मनुस्मृति आदि नाना ग्रन्थों सहित कुछ कुछ रामायण एवं महाभारत के अध्ययन से भी प्राप्त होता है। अतः इन ग्रन्थों की रक्षा करना सभी मनुष्यों का परम व मुख्य कर्तव्य है।
हमने जिन ग्रन्थों का उल्लेख किया है वह सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है। इनकी रक्षा तभी हो सकती है जब कि हम संस्कृत भाषा को जाने और उसे जानकर इन ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए इनमें निहित ज्ञान को आत्मसात करें। इस कार्य को करने के लिये ही हमें गुरुकुलों की आवश्यकता होती है। प्राचीन काल से गुरुकुलों की परम्परा भारत में चल रही है। महाभारत काल के बाद गुरुकुल परम्परा के विलुप्त हो जाने के कारण ऋषि दयानन्द को इस परम्परा को पुनर्जीवित करना पड़ा अन्यथा आज हमें वेद और अन्य ग्रन्थ तथा उनके सत्यार्थ व यथार्थ सुलभ न होते। आर्यसमाज और आर्यसमाज के विद्वानों सहित ऋषि दयानन्द की यह प्रमुख देनों में से एक देन है कि उन्होंने हमें वेदों सहित सभी प्रमुख शास्त्रीय ग्रन्थों के संस्कृत व हिन्दी में यथार्थ सत्य अर्थ प्रदान किये हैं। हिन्दी में सभी ग्रन्थों के अर्थ उपलब्ध होने के कारण प्रत्येक हिन्दी भाषी व्यक्ति भले ही वह उच्च शिक्षित न हो, शास्त्रों के तात्पर्य को यथार्थ रूप में जान सकता है।
गुरुकुलों का महत्व इसी कारण है कि यह छोटे बच्चों को संस्कृत का अध्ययन कराते हुए उन्हें संस्कृत की आर्ष व्याकरण पाणिनी-अष्टाध्यायी-निरुक्त पद्धति में निपुण व दक्ष कराते हैं। इससे इन विद्यार्थियों का शास्त्र के तात्पर्य को मूल ग्रन्थों से बिना टीका ग्रन्थों के समझना सम्भव हो जाता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये लिये ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में आर्ष व्याकरण पढ़ने और शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन, मनन व चिन्तन करने सहित विद्वानों से इनके प्रचार की अपेक्षा की थी जिससे संसार के मत-मतान्तरों में प्रचलित अविद्या का नाश कर विद्या की वृद्धि की जा सके। स्वामी दयानन्द सत्य के ग्रहण तथा असत्य के त्याग को धर्म व कर्तव्य समझते थे। हमारी दृष्टि में जो मनुष्य होकर भी सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग नहीं करते और सत्यासत्य पर विचार नहीं करते वह लोग मनुष्य होने की संज्ञा को सार्थक नहीं करते। ऐसे लोगों के कारण ही संसार में नाना प्रकार के दुःख व कष्ट विद्यमान है। ऐसे लोग अविद्या में फंसे रहते हैं और अपना व अपने समुदायों का भी इस जन्म व परजन्म के सुखों का नाश करने के साथ अन्य सभ्य व सदाचार में प्रवृत्त लोगों को भी दुःख देते हैं।
आज हमारे पास वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद आदि अनेकानेक प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थ हैं और इन सबके हिन्दी व अन्य भाषाओं मे सत्य अर्थ भी प्राप्त हैं। यह सब ऋषि दयानन्द की प्रेरणा व कृपा का परिणाम है। इससे इन ग्रन्थों सहित वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा हुई है। वेद का आदेश है ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” अर्थात् पूरे विश्व को श्रेष्ठ आचार वाला ‘‘आर्य” संज्ञक मनुष्य बनाओ। यह कार्य इन ग्रन्थों के सत्यार्थ के प्रचार प्रसार व आचरण से ही सम्भव हो सकता है। इन ग्रन्थों के अध्ययन करने व आचरण करने से मनुष्य सुख व समृद्धि सहित परजन्म में श्रेष्ठ मनुष्य योनि वा मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है। मनुष्य जीवन में भी इससे ईश्वर व आत्मा का साक्षात्कार कर जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है जिससे मनुष्य जन्म व मरण के बन्धनों वा सभी दुःखों से 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक मुक्त हो जाता है। यही मनुष्य का चरम लक्ष्य है जो वैदिक धर्म के पालन से मनुष्य को सुलभ होता है। अन्य किसी मत-मतान्तर का अनुयायी बनने से यह लाभ प्राप्त नहीं होते।
हमें ईश्वर व आत्मा के सत्य स्वरूप का प्रचार कर संसार से अविद्या को मिटाना है और मुनष्य मात्र का हित करना है। वेदादेश ‘‘मनुर्भव” में यही भावना है कि संसार के लोगों को सच्चा व अच्छा, धार्मिक व सदाचारी मनुष्य बनायें। ऋषि दयानन्द ने इस कार्य को सम्पन्न करने का पूरा मानचित्र व रूपरेखा हमें प्रदान की है। हमें उसपर चलकर वेद के लक्ष्यों को प्राप्त कर संसार को सुख का धाम बनाना है। गुरुकुलों के विद्यार्थियों के पुरुषार्थ से ही वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा होकर इन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। हम सभी को यथासम्भव गुरुकुलों का पोषण दान आदि के द्वारा करना चाहिये। इसी से हम सुरक्षित रहेंगे और हमारी भावी सन्ततियां सुखों को प्राप्त हो सकती हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य