हमारा लोकतंत्र बनाम अमेरिकी लोकतंत्र एक तुलनात्मक समीक्षा
हमारे लोकतंत्र और अमेरिकी लोकतंत्र में कितना अन्तर है? इसको समझने के लिए मात्र एक उदाहरण ही काफी है कि दुनिया के सबसे ताकतवर समझे जाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति को उसको पद पर रहते हुए भी, वहाँ की एक स्टेट की एक कोर्ट ने बिना किसी राजनैतिक व प्रशासनिक दबाव व व्यवधान के निर्भयतापूर्वक जाँचकर पदासीन राष्ट्रपति डॉनाल्ड ट्रंप द्वारा 2016 के राष्ट्पति के चुनाव में किए गये कुछ आर्थिक अनियमितताओं में पकड़े जाने और अपराध सिद्ध होने पर बीस लाख डॉलर का जुर्माना ठोक दिया है।
भारत की तरह जैसे यहाँ के राज्यों के हाई कोर्टों द्वारा लिए गये फैसलों को यहाँ के सुप्रीमकोर्ट द्वारा पलट दिया जाता है, वैसे अमेरिका के किसी स्टेट कोर्ट द्वारा लिए गये फैसले को वहाँ की फेडरल कोर्ट {भारत में सुप्रीमकोर्ट} शायद ही कभी हस्तक्षेप करती है, वह अपने निचले स्टेट कोर्ट के फैसलों का सम्मान करती है, मतलब अब ट्रंप साहब को बीस लाख का जुर्माना भरना ही पड़ेगा, कोई सुनवाई नहीं, कोई धौंसपट्टी नहीं, किसी जज का ट्रांसफर नहीं।
जरा इसी को आज के भारत के वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में तुलना करें, क्या भारत में किसी प्रधानमंत्री के पद पर रहते किसी राज्य के हाई कोर्ट की हिम्मत है कि वह यहाँ के विगत् चुनाव में हुई तमाम आचार संहिताओं के उल्लंघन के बावजूद भी उसके विरोध में कोई फैसला दे दे? हम भले ही बात-बात पर विश्व के दो बड़े लोकतंत्र के नाम पर अमेरिकी लोकतंत्र से भारतीय लोकतंत्र की तुलना कर लें, परन्तु अमेरिका जैसे ताकतवर और शक्ति संपन्न देश में न्यायपालिका पर राजनैतिक दबाव नहीं के बराबर है, अमेरिकी लोकतंत्र और भारत के कथित लोकतंत्र में यह मूलभूत अंंतर है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या कभी हमारी न्यायपालिका और यहाँ की राजनीति का संबंध अमेरिकी लोकतंत्र जैसे कभी बन पायेगी? यहाँ की न्यायपालिका निष्पक्ष निर्णय दे पाएंगी? अभी पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बनने पर उस व्यक्ति के सारे मुकदमें जबरन उच्च राजनैतिक दबाव में वापस ले लिए गये ! आखिर ऐसा क्यों? न्याय तो गरीब-अमीर, धनी-निर्धन, कमजोर-ताकतवर आदिआदि सभी के लिए बराबर होना चाहिए, समदर्शी होना चाहिए, हमारे देश में यह भेदभाव क्यों है? तब तो यह छद्म लोकतंत्र है, यह भ्रम है कि हम लोकतंत्र में जी रहे हैं। इसमें सुधार होना ही चाहिए, न्यायपालिका पर भारत में भी राजनैतिक हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं होना चाहिए, तभी सही मायने में हमारे देश में लोकतंत्र आएगा।
— निर्मल कुमार शर्मा