नसीब अपना अपना
“नसीब अपना हो या अपनों का
कभी एक सा नहीं होता
कभी किसी कि ख्वाइशें पूरी होती हैं
तो कभी बस जरूरतें
किसी के हसरतों में बच्चों की किलकारियाॅ॑ होती हैं
तो किसी के आॅ॑खों में बच्चों के लिए अश्रु
वह अश्रु दुःख,सुख के नहीं बल्कि
बच्चों के दो जून की रोटी के लिए होते हैं
किसी के सपनों की हकीकत में मखमली सेज होती हैं
तो किसी के समूचे जीवन की हकीकत
नीले आसमां की चादर होती हैं
कोई आधुनिकता में फटे कपड़े पहनता हैं
तो कोई अपनी गरीबी में
कोई शानों-शौंकत में हरी घास की चप्पल पहनता हैं
तो कोई नियति मान हरें पत्तों से तन को ढकता हैं
ये नसीब आया उस दिन जीवन में, जिस दिन पैदा हुए सभी
उससे पहले भी एक से थे
दिखतें भी एक से थे
ख्वाइशें भी एक सी थी
मां का गर्भ भी एक सा था
पैदा होते ही बदल गए नसीब अपना –अपना लें
मरेंगे जिस दिन वह दिन भी एक सा होगा
राख होगे सभी बस फर्क होगा लकड़ियों का
कुछ होगे चन्दन की लकड़ियों से राख
तो वहीं कुछ बेनाम होगे
ये नसीब अपना –अपना हैं इन लकड़ियों के खेल सा …।।”
— रेशमा त्रिपाठी