गज़ल
ज़ख्मों पे मरहम रखने उतरी हो जो खला से
लगते हो तुम मुझे उस पाकीज़ा सी दुआ से
हर बार ये लगता है शायद तू आ गया है
होती है जब भी आहट दर पर मेरे हवा से
खामोशियों को मेरी जो समझ रहे हो तुम तो
समझे न समझे दुनिया सारी मेरी बला से
बिना तीर बिना खंजर सब हो गए थे घायल
मुस्कुरा दिए तुम महफिल में जब अदा से
शिकवा नहीं है कोई तेरी बेरूखी से हमदम
मुझे तो शिकायतें हैं बस अपनी ही वफा से
— भरत मल्होत्रा