लघुकथा : लक्ष्मणरेखा
लक्ष्मणरेखा
“हद होती है बेशर्मी की ! कम से कम बच्चों की तो शर्म की होती !” विछिप्त सा सोहम चिल्लाया !
“कहाँ कमी रह गई मुझसे? कौन सा ऐसा सुख था जो मैंने तुम्हें नहीं दिया, बोलो?” सोहम लगभग चिल्लाते हुए बोला !
क्या बोलती शुभी ! देखने में सच में कोई कमी ना थी ! प्यार करने वाला पति और दो प्यारे बच्चे ! पर कुछ तो था, जिसने उसे लक्ष्मणरेखा पार करने को मजबूर किया !
“और वो आस्तीन का सांप सौरभ? मेरा दोस्त होने का ढोंग रचता रहा, और मेरे ही घर की इज्जत से खेलता रहा ! निकल जाओ मेरे घर से ! बदबू आ रही है मुझे तुम्हारे जिस्म से उस बदजात सौरभ की!”
“घर-गृहस्थी, खुशबु-बदबू का ख्याल तुम्हें तब क्यों नहीं आया जब रूही हमारे प्यार को दीमक की तरह चाट रही थी?” शुभी चिल्लाई !
कमरे में गहन ख़ामोशी थी ! पर… पुरुष दंभ टूटने के साथ-साथ, लक्ष्मणरेखा टूटने की चटक, भविष्य में आने वाले तूफान का इशारा कर रही थी !
अंजु गुप्ता