लघुकथा

स्वतंत्र निर्णय

“दीदी, क्या तुम दो दिन का समय नहीं निकाल सकती थी।मुझे जब भी कोई काम पड़ा,तुमने हमेशा ही बहाने बनाए।हमेशा कुछ न कुछ मजबूरी बताकर टाल दिया।अनु की शादी में भी तुम पूरी रात नहीं रूकी और बहाना बनाकर जीजाजी के साथ चलती बनी।”
“देख सोनू,तू ऐसे आरोप मत लगा।तेरा जब ऑपरेशन हुआ था तो अस्पताल में कौन रूका था और फिर अनु की शादी की तैयारी में मैंने कोई कोर-कसर रखी थी।वीनू की शादी के लिए लड़का देखने से लेकर उसकी शादी में क्या मैंने कुछ नहीं किया।इन सब बातों को तो तुने भूला ही दिया।और फिर मुझे जब भी काम पड़ा तू कब मेरी तकलीफों में काम आई।”
“हम लोग दूर रहते थे,कैसे आ सकते थे लेकिन अब तो तुम लोग खुद ही इसी शहर में रहने आ गए हो।दो दिन मैं घर पर अकेली थी और तुम्हें मालूम ही है कि मैं अकेले कितना डरती हूँ।पहली बार ही तो मैंने तुमसे कहा था लेकिन तुमने मजबूरी बताकर मना कर दिया और अभी मैंने थोड़ा सा बोला तो तुम्हें इतनी आग लग गई।कितनी ओछी और टुच्ची बात कर दी।अब समझ में आया कि माँ तो माँ होती है।बड़ी बहन माँ की जगह कैसे ले सकती है।”
“सही कहा तूने।माँ का अपना घर होता है अपनी संतान के लिए वह कुछ भी कर सकती है लेकिन हम तो अपने-अपने पति के घर रहती हैं तो स्वतंत्र निर्णय कैसे कर सकती हैं।ऐसे में मजबूरियाँ आड़े आ ही जाती हैं।”

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009