स्वतंत्र निर्णय
“दीदी, क्या तुम दो दिन का समय नहीं निकाल सकती थी।मुझे जब भी कोई काम पड़ा,तुमने हमेशा ही बहाने बनाए।हमेशा कुछ न कुछ मजबूरी बताकर टाल दिया।अनु की शादी में भी तुम पूरी रात नहीं रूकी और बहाना बनाकर जीजाजी के साथ चलती बनी।”
“देख सोनू,तू ऐसे आरोप मत लगा।तेरा जब ऑपरेशन हुआ था तो अस्पताल में कौन रूका था और फिर अनु की शादी की तैयारी में मैंने कोई कोर-कसर रखी थी।वीनू की शादी के लिए लड़का देखने से लेकर उसकी शादी में क्या मैंने कुछ नहीं किया।इन सब बातों को तो तुने भूला ही दिया।और फिर मुझे जब भी काम पड़ा तू कब मेरी तकलीफों में काम आई।”
“हम लोग दूर रहते थे,कैसे आ सकते थे लेकिन अब तो तुम लोग खुद ही इसी शहर में रहने आ गए हो।दो दिन मैं घर पर अकेली थी और तुम्हें मालूम ही है कि मैं अकेले कितना डरती हूँ।पहली बार ही तो मैंने तुमसे कहा था लेकिन तुमने मजबूरी बताकर मना कर दिया और अभी मैंने थोड़ा सा बोला तो तुम्हें इतनी आग लग गई।कितनी ओछी और टुच्ची बात कर दी।अब समझ में आया कि माँ तो माँ होती है।बड़ी बहन माँ की जगह कैसे ले सकती है।”
“सही कहा तूने।माँ का अपना घर होता है अपनी संतान के लिए वह कुछ भी कर सकती है लेकिन हम तो अपने-अपने पति के घर रहती हैं तो स्वतंत्र निर्णय कैसे कर सकती हैं।ऐसे में मजबूरियाँ आड़े आ ही जाती हैं।”