प्रभात नई
झिलमिल झिलमिल तारें डूबे धरा हुई प्रभात नई
दूर क्षितिज अरुणाई फैली लगती जैसे बात नई
होने लगा प्रभास रह रह कल-कल स्वर में नदी रही बह
बँधी नाव नाविक ने खोली जल-तरंग सुहात नई ।
पूरव-दिशा सूरज का गोला निकला जैसे रत्न अमोला
पंछी त्याग चले नीड़ों को जाती लगे जमात नई ।
नव-प्रभात नव-शक्ति देता कर्म जताता भक्ति देता
बैठ किनारे समाधिस्थ वक करता हर पल घात नई ।
— व्यग्र पाण्डे