गीत/नवगीत

सो जाती है न्याय व्यवस्था

पीड़ित को दे तारीखें जब, सो जाती है न्याय व्यवस्था।
तब कानून कबीलों वाले, जनता को भाने लगते हैं।।

कुछ सत्ता की उदासीनता, कुछ शाशन का नाकारापन।
नही सुनिश्चित कर पाता जब, तय कानूनो का अनुपालन।।
राजनीति रक्षित अपराधी, जब आश्रय पाने लगते हैं…
तब कानून कबीलों वाले, जनता को भाने लगते हैं…

बरसों बरस भटकने पर भी, पीड़ित न्याय नही पाते जब।
अपराधी कानून पुलिस का, बिल्कुल ख़ौफ़ नही खाते जब।।
संविधान को अपराधी जब, आँखे दिखलाने लगते हैं…
तब कानून कबीलों वाले, जनता को भाने लगते हैं…

वैसे तो हम लोकतंत्र की, परंपराओं के पालक हैं।
मानवता के संदर्भों में, श्रेष्ठ रीति के संचालक हैं।।
प्रन्तु तंत्र के संस्थान जब, जन को भरमाने लगते हैं…
तब कानून कबीलों वाले, जनता को भाने लगते हैं…

संस्थाओं पर आम जनों का, अगर भरोसा नही रहेगा।
तो फिर इक्कीसवीं सदी में, कबीलाई माहौल पलेगा।।
पीड़ित लम्बी न्याय प्रक्रिया, से जब उकताने लगते हैं…
तब कानून कबीलों वाले, जनता को भाने लगते हैं…

सही समय पर पीड़ित जन को, न्याय नही यदि मिल पाएगा।
तो विश्वास व्यवस्था के प्रति, जनता में घटता जाएगा।।
जन की सहनशीलता के जब, बाँध टूट जाने लगते हैं…
तब कानून कबीलों वाले, जनता को भाने लगते हैं…

— सतीश बंसल

*सतीश बंसल

पिता का नाम : श्री श्री निवास बंसल जन्म स्थान : ग्राम- घिटौरा, जिला - बागपत (उत्तर प्रदेश) वर्तमान निवास : पंडितवाडी, देहरादून फोन : 09368463261 जन्म तिथि : 02-09-1968 : B.A 1990 CCS University Meerut (UP) लेखन : हिन्दी कविता एवं गीत प्रकाशित पुस्तकें : " गुनगुनांने लगीं खामोशियां" "चलो गुनगुनाएँ" , "कवि नही हूँ मैं", "संस्कार के दीप" एवं "रोशनी के लिए" विषय : सभी सामाजिक, राजनैतिक, सामयिक, बेटी बचाव, गौ हत्या, प्रकृति, पारिवारिक रिश्ते , आध्यात्मिक, देश भक्ति, वीर रस एवं प्रेम गीत.