समस्त नई पीढ़ी को समर्पित
ये दिन तुम पर भी आयेंगे अपनी पारी तुम समझो
वृद्ध पिता की बूढी माँ की जिम्मेदारी तुम समझो
तुम्हे खिलाया गोद बिठा कर काँधे दुनिया दिखलाई
क्यों अब हम तुम पर हैं भारी क्या दुश्वारी तुम समझो
सारा जीवन देते आये कभी न झोली फैलाई
क्यों चाहिए हमको अपनापन ये खुद्दारी तुम समझो
पथराई सूनी आँखों में बीते कल की यादें है
सूख गये क्यों सारे आंसू ये लाचारी तुम समझो
ईंट की दीवारो से बनते महल दुमहले और भवन
पर कैसे घर बन पाता है राज अटारी तुम समझो
बेटी विदा हुई जाने कबअब तक सबसे जुडी हुई
घर जमाई क्यों बनते बेटे ये बीमारी तुम समझो
पिता से बढ़ कर धरम पिता है माँ से बढ़ कर सास हुई
पानी हुआ खून से गाढ़ा कलम कुठारी तुम समझो
जहाँ सभी को जाना इक दिन उसी डगर पर हम भी हैं
धीरे धीरे चुपके चुपके है तैयारी तुम समझो
— मनोज श्रीवास्तव लखनऊ