विशेषता
”एक कली कब खिलकर फूल बन जाती है, पता नहीं,
यौवन कब आकर मुरझा जाता है, कुछ पता नहीं,”
बात तो सच थी, न तो यौवन के आने का पता चलता है, न ढल जाने का, लेकिन यह शेर पढ़ा किसने! मैंने चारों ओर देखा, पर कोई दिखाई नहीं दिया.
”मैं हूं दीदी.” सामने आते हुए विशेष सदाबहार कैलेंडर ने कहा.
”अच्छा तो तुम्हें अपनी विशेषता का पता चल गया?” मैंने उससे पूछा.
”दीदी, अपनी विशेषता का पता भला खुद कैसे लग सकता है, इसके लिए तो परखने वाला कोई गुरु या जौहरी चाहिए.” वह बोला.
”तो मिल गया तुम्हें कोई गुरु या जौहरी?” मैं भी पता नहीं किस रौ में पूछे जा रही थी.
”लीजिए दीदी, शायद आज आप मजाक के मूड में हैं. आप सबके जन्मदिन मनाती हैं, मेरा भी जन्मदिन आने वाला है. आज से आठ साल पहले 2011 की 31 दिसंबर को नववर्ष की पूर्व संध्या पर आपने मुझे ‘सदाबहार कैलेंडर’ के नाम से ब्लॉग रूप में पहली बार प्रकाशित किया था. मेरा वह रूप पाठकों और कामेंटटर्स को इतना पसंद आया, कि आपको इसे जारी रखना पड़ा”. सदाबहार कैलेंडर ने कहा.
”जारी रखना पड़ा क्यों कह रहे हो? यह तो हमारी भाषा नहीं है! हमें तो इसे जारी रखने में बहुत मजा आ रहा है.” मैंने कहा.
”सॉरी दीदी, अब ऐसी गलती कभी नहीं होगी. मैं ही तो हर काम में आनंद अनुभव करना सिखाता हूं.” सदाबहार कैलेंडर ने कान पकड़ते हुए कहा.
”चलो छोड़ो कान, यह बताओ कि तुम सदाबहार कैलेंडर से विशेष सदाबहार कैलेंडर कैसे बन गए?”
”दीदी, लगता है आज आप मुझसे मेरी सारी आत्मकथा उगलवाकर ही रहेंगी. जब आपके मन में पाठकों को सदाबहार कैलेंडर से जोड़ने का विचार आया, तो मैं विशेष सदाबहार कैलेंडर बन गया. इस विशेष सदाबहार कैलेंडर- 1 को स्वास्तिक भाई ने अपने यूपी के विशेष अंदाज़ से कितने चाव से सजाया था, मैं आज तक नहीं भूला.”
”फिर?”
”फिर क्या? गुरमेल भमरा क्या आए, मैं उनका भंवरा बन बैठा. वे मेरे हर अनमोल वचन की तह तक जाते हैं और हर बार एक हीरा-रतन ढूंढ लाते हैं. वे तो मेरे अनमोल वचनों को इंग्लैंड के रेडियो पर भी भेजते हैं.” खुशी से गद्गद विशेष भाई के खुशी के आंसू देखकर हमारी आंखें भी पनीली हो गईं.
”मनजीत कौर को तो तो मैं भूल ही नहीं सकता. वे कॉर्डों की महारानी हैं और अनमोल वचनों के अनमोल पोस्टरों की मल्लिका. आप तनिक ‘जन्म दिन की बधाई: मनजीत को पत्र’ तो पढ़कर देखिए.” विशेष भाई कहीं खो-से गए!
”प्रकाश मौसम, प्रकाश गुप्ता, जीवन प्रकाश मुझे अपने प्रकाश से प्रकाशित करते गए और विजय सिंघल, विजय बाल्यान मुझे विजय की सीढ़ियां चढ़ाते गए. रवि कांत मिश्रा, राजीव गुप्ता और इंद्रेश उनियाल दाद देते गए. फिर मैदान में आए रविंदर सूदन, उन्होंने तो मुझे सजाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और आज तक विराम ही नहीं लिया. जानते हैं उन्होंने दीदी को अनमोल वचन भेजने के लिए पोस्टर्स बनाना सीखा और रोज दीदी के मेल बॉक्स को सजाते-महकाते हैं! फिर सुदर्शन खन्ना अपना चक्र चलाते गए और गौरव द्विवेदी मुझे फेसबुक के माध्यम से गर्वित करते गए.” विशेष भाई तनिक मौन हो गए थे.
”दीदी के बहू-बेटे शिप्रा तिवानी और राजेंद्र तिवानी ने तो दीदी को जन्मदिन के उपहार-स्वरूप कैलेंडर के साथ app cum website भी सदाबहार बनाकर मुझे सचमुच विशेष बना दिया. दीदी रोज सुबह ब्लॉग प्रकाशित करने के बाद फेसबुक पर इस app cum website से दो अनमोल वचन निकालती हैं और सभी पाठकों को पहुंचाती हैं, उस समय मुझे ऐसा लगता है, वे मुझे प्यार से सहला रही हैं.
जन्मदिन का उपहार, अब कैलेंडर के साथ app cum website भी सदाबहार
https://www.sadabaharcalendar.com/
विशेष भाई तनिक भावुक हो गए थे.
विशेष भाई आप चुप क्यों हो गए? कुछ और बताइए न!”
”बता रहा हूं, जरा सांस ले रहा था. चंचल जैन जी ने लिखा था- ‘लीला दीदी, सादर प्रणाम. रंगबिरंगे, खुशबूदार फूलों से सजा है यह सुन्दर गुलदस्ता. महकता, चहकता, खिला-खिला, ताजगी से भरा-भरा.’ मैं तनिक फूल गया था.”
”फिर?”
”फिर क्या, अपनी कही बात ‘खुशी में फूलो नहीं’ याद आते ही मैं फिसलते-फिसलते संभल गया. तभी—–” विशेष भाई कुछ बोलना चाहते थे, लेकिन बोलते-बोलते रुक गए.
”तभी क्या?”
”तभी कुसुम सुराणा की प्रतिक्रिया आई- ‘नई सुबह का आग़ाज़ करती सूरज की किरणें नया विचार भी ले आती हैं! ये विचार किसी को जिंदगी के मायने समझाते है तो किसी को जीने के तरीके! कभी मुस्कुराहट तो कभी आँसुओं की बारिश! सदाबहार कैलेंडर आनेवाले पलों का कहकहों से स्वागत भी करता है और ढलते सूरज को ससम्मान विदा करना भी जानता है! “हर लम्हा बेमिसाल, जाया न कर! ख़ुदा की बख्शीश, तन्हाई में गंवाया न कर! जिंदगी जीने का फन सीख़ ले! नेकी से औरों का मन जीत ले!” बहुत अच्छे सुविचार! “पतझड़ में सिर्फ पत्ते गिरते हैं,नजरों से गिरने का कोई मौसम नहीं होता”…..”नीचे गिरे पत्तों पर अदब से चलना जरा, कभी कड़ी धूप में तुमने इनसे ही पनाह मांगी थी” धन्यवाद! फूलों को गुलदस्तों में सजाने के लिए, मनकों को रेशमी धागे में पिरोने के लिए! धन्यवाद!” विशेष भाई फिर चुप हो गए थे.
”फिर क्या हुआ विशेष भाई?” हमने पूछा.
”होना क्या था, मुझे अपनी विशेषता का आभास हो गया, पर इस बार मैंने धमंड नहीं किया, बस तनिक गर्वित हो गया और खुद को समझाते हुए कहा-
सूरज से उजालों की खैरात न मांग,
तू जुगनू ही सही अपने जुनून पर ऐतबार रख.”
अपनी विशेषता का परिचय देकर विशेष भाई जाने किधर चले गए! देखा तो विशेष सदाबहार कैलेंडर-145 को सजाने में लगे हुए थे.
संतुष्टि राज्य वैभव में नहीं,
वह तो मन का धर्म है.