मजमून
”एक समय था, जब खत को देखकर मजमून भांप लिया जा सकता था, एक आज का जमाना है, जब मजमून को देखकर भी मजमून का सही पता नहीं लगाया जा सकता.” सात्विक शायद खुद से ही बात कर रहा था, और कोई तो वहां था ही नहीं..
”ऐसा क्यों सोच रहे हो?” सात्विक के मन का एक कोना मुखर हो गया था.
”देश के हर कोने में ‘नागरिकता संशोधन कानून’ के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं. प्रदर्शन तो सही है, पर पत्थरबाजी, आगजनी, सरकारी-गैर सरकारी संपत्ति की तोड़फोड़ में कोई समझदारी है?” दूसरे कोने ने अपने विचार व्यक्त किए.
”समझदारी की जरूरत ही कहां है? पता ही नहीं चल रहा, कि प्रदर्शनकारी कौन लोग हैं और उनको भी नहीं पता, कि वे प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं.” तीसरा कोना क्यों चुप रहता भला!
”एक नई प्रजाति का उदय जो हो गया है! यह नई प्रजाति है बेरोजगारों की. प्रदर्शन के लिए इनको खरीद लिया जाता है. इनकी कोई जाति नहीं होती, बस पैसा ही इनका ईमान भी होता है और धर्म भी.” चौथे कोने से आवाज आई.
”कैसे बाज़ार का दस्तूर तुम्हें समझाऊं,
बिक गया वो जो खरीदार हो नहीं सकता”
रेडियो पर यह गाना सुनते-सुनते पूरे देश के बेहद अफसोसनाक बवाल का मजमून सात्विक को समझ में आ गया था.
आपको याद होगा, कि हमने एक लघुकथा लिखी थी- ‘विरोध करेंगे, गतिरोध नहीं’. अन्याय नहीं सहना है, अपनी बात अवश्य कहना है, पर संयत होकर. सरकार तक अपनी बात पहुंचानी है. इसके लिए पत्थरबाजी करना, आगजनी करना, सरकारी- गैरसरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने से उसकी भरपाई आम जनता के टैक्स से ही होगी. देश हमारा, संपत्ति हमारी, नफा-नुकसान भी हमारा ही है.