“हो रहा विहान है”
हो रहा विहान है, रश्मियाँ जवान हैं,
पर्वतों की राह में, चढ़ाई है ढलान है।।
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मतकरो कुतर्क कुछ, सत्य स्वयं सिद्ध है,
हौसले से काम लो, पथ नहीं विरुद्ध है,
यत्न से सँवार लो, उजड़ रहा वितान है।
पर्वतों की राह में, चढ़ाई है ढलान है।।
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मनुजता की नीड़ में, विषाद ही विषाद हैं,
धर्म प्रान्त-जाति के बढ़ रहे विवाद हैं,
एकता अखण्डता का, रो रहा विधान है।
पर्वतों की राह में, चढ़ाई है ढलान है।।
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चोटियों से शैल की, हिम रहा सतत पिघल,
पंक में खिला कमल, खोजता है स्वच्छ जल,
मनुजता की आज तो, लुट रही दुकान है।
पर्वतों की राह में, चढ़ाई है ढलान है।।
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वाटिका का हर सुमन, गन्ध को लुटा रहा,
चाँद अपनी चाँदनी से, ताप को घटा रहा,
नव विहान छेड़ता, नित्य नयी तान है।
पर्वतों की राह में, चढ़ाई है ढलान है।।
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स्वाभिमान कह रहा, दम्भ मत उधार लो,
वर्तमान कह रहा, भविष्य को सँवार लो,
बेदिलों के दिलों को, अब सुमन बनाइए,
बस यही उपाय है, बस यही निदान है।
पर्वतों की राह में, चढ़ाई है ढलान है।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)