लघुकथा

ठेकेदार

सारे दिन की जदोजहद्द के बाद थका-हारा राजेश्वर रात को चैन की नींद सोने अपने कमरे में गया, कि उसे किसी की आवाज सुनाई दी-
”आ गया हमें खून के आंसू रुलाने वाला चैन की नींद सोने के लिए.” राजेश्वर को लगा कोई ठूंठ बोल रहा था.

”सो पाएगा यह चैन की नींद!” राजेश्वर चुपचाप ठूंठों की गुफ्तगू सुनता रहा.

”दिन की शुरुआत करते हुए यह गाता-गुनगुनाता है-
‘मैय्या जी मुझे रख लेना सेवादार.’
मैंने भी सुना है. पर यह सेवादार नहीं, ठेकेदार है, वो भी हम पेड़ों की कटाई करके हमको ठूंठ बनाने का.”

”अरे, ये तो हमको ठूंठ बनाते-बनाते खुद ठूंठ बन गया है. हम तो फिर भी तन से ही ठूंठ हैं, किसी दिन फिर पृथ्वी ने सींचकर हमको असीस दी, तो हम फिर से हरे-भरे हो जाएंगे, लेकिन यह तो तन-मन से ठूंठ हो गया है.”

”सही कह रहे हो मित्र, देखा नहीं! अपने बच्चे की अंतिम विदाई के लिए ऐन टाइम पर सीधा श्मशान पहुंचा था, क्योंकि उस समय इसको हमारी कटाई के ठेके का अनुबंध जो मिलने वाला था! बेचारा कैसे आ सकता था! करोड़ों का सवाल जो था!”
राजेश्वर की रुलाई छूट गई थी.

”चुप कर जा, देख बिचारे को रुला दिया!” एक ठूंठ को दया आ गई.

”अभी तो यह हमको ही रुला-तरसा-यड़पा रहा है, एक दिन इसकी और इसकी जाति के अन्य ठेकेदारों की करतूत के कारण यह क्या, सारी मानव जाति एक इंच छांव के लिए ऐसे ही रोएगी-तरसेगी-तड़पेगी, जैसे आज इसके घर में घुसी हुई एक मक्खी सब चीजें ढकी होने के कारण एक बूंद रस तक न पा सकने के कारण सारा दिन तरसती-तड़पती-उद्विग्न होती रही.”

”चुप करो, मैं और नहीं सुन सकता!” राजेश्वर चिल्ला पड़ा था. मां-बीवी-बेटी सब दौड़े आए.

”अब भी मैं ठेका लूंगा, लेकिन पेड़ों की कटाई का नहीं, पेड़ लगाने का.” सबने देखा वह मोबाइल पर मैसेज भेज रहा था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “ठेकेदार

  • लीला तिवानी

    दरख्तों की कितनी अहमियत है हमारी ज़िंदगी में, दुनिया को ऑक्सीजन देने वाले, आसमान से बारिश लाने वाले और हवा को साफ़ रखने वाले इन पेड़ों की बुनियाद पर कंक्रीट उगाई जाएगी, सब लोग बहस-मुबाहिसे में उलझे थे।
    इतने वृक्षों की कटाई ! मानव अपने स्वार्थवश प्रकृति को क्षत विक्षत कर रहा.
    प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन हमें कहां ले जाकर छोड़ेगा, यह सहज ही विचारणीय है। क्या सच में हमारा समाज दिमाग से भी बंजर हो गया है? सोचने का विषय है.

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