गीत
शीतनिशा जैसा नीरव मन ।
ठिठुर रहा है मन का उपवन।
कठिन प्रश्न हैं,कठिन व्याकरण।
पीड़ा का हिय मध्य अवतरण ।
नही दिख रहे समाधान पथ,
मन पे कुहरा सरिस आवरण।
जला रही है मुझको पीड़ा ,
सुलग रहा मैं ,जैसे कुंदन ।
शीतनिशा………………
करवट करवट बीती रैना ।
शीतबिंदु से बरसे नैना ।
ठंडी हवा चुभे , तन को, ज्यों
-उर को चुभते तीखे बैना ।
यादों के हिमपात हो रहे ,
सूख रहा नैनों का मधुवन।
शीतनिशा जैसा………… I
बिन सूरज प्रभात सा जीवन।
शीत धूप जैसा दुर्बल मन ।
धुंध भरे नभ सरिस कल्पना,
न मयंक न कोई उडगन ।
सभी चर अचर शिथिल हो रहे,
शिथिल पड़ रहा उर स्पंदन ।
शीत निशा………………
———————©डा. दिवाकर दत्त त्रिपाठी ०४/०१/२०२० गोरखपुर