गुंजन की ग़ज़ल
मुद्दत से चाहते थे वो हो गयी हमारी।
समझो न इसको कोई बाज़ीगरी हमारी।
वो कह रहे हैं हमसे मरते हैं तुम पे कब से
उनको तो भा गयी है ये सादगी हमारी।
गफ़लत में रात बीती गफ़लत में दिन ये गुज़रा।
ग़फलत में जी रहे थे, ग़फलत ये थी हमारी
सीरत ने उनको लूटा,सूरत ये हाय तौबा
ओढ़े नकाब बैठी आरास्तगी हमारी।
आलम ये सारा हमसे जल-भुन के ऐसा बैठा।
*गुंजन* न रास आयी उसे ज़िन्दगी हमारी।
गुंजन अग्रवाल