मुक्तक/दोहा

तीन मुक्तक

मुट्ठी बांधे जग में आए थे हम, मोबाइल लेकर घूमते हैं,
मुट्ठी में है जमाना सोचकर, तंज़ करते हुए झूमते हैं,
अभिसार और अभिसारिका का जमाना शायद लद गया,
प्रेमी-प्रेमिका की तस्वीर देखकर मोबाइल को चूमते हैं.

 

सूरज फीका लग रहा, कहता अब संभलो,
प्रदूषण ने मुझको घेरा, आदत अपनी बदलो,
वरना ऐसा दिन आएगा, पछताते रह जाओगे,
पर्यावरण भी स्वच्छ बनाओ, मन को स्वच्छ बनाते चलो.

 

तनाव तो कम नहीं हुआ, तेल के दाम कम हो गए,
आत्मिक चर्चा को अब, बहस के पंख लग गए,
कहां जाएं, किधर जाएं, कैसे जाएं, कोई बता दे हमें,
जिधर रुख किया, तंज़-ही-तंज़ के शिकंजे कस गए.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “तीन मुक्तक

  • लीला तिवानी

    एक मुक्तक
    नूतन वर्ष में अभिनव प्रयोग करके तो देखें,
    नई विधा नई दिशा की ओर भी चलकर तो देखें,
    जीवन बन जाएगा मंगलमय मधुमास,
    नई युक्तियों को जरा अपनाकर तो देखें!
    -लीला तिवानी

Comments are closed.