तीन मुक्तक
मुट्ठी बांधे जग में आए थे हम, मोबाइल लेकर घूमते हैं,
मुट्ठी में है जमाना सोचकर, तंज़ करते हुए झूमते हैं,
अभिसार और अभिसारिका का जमाना शायद लद गया,
प्रेमी-प्रेमिका की तस्वीर देखकर मोबाइल को चूमते हैं.
सूरज फीका लग रहा, कहता अब संभलो,
प्रदूषण ने मुझको घेरा, आदत अपनी बदलो,
वरना ऐसा दिन आएगा, पछताते रह जाओगे,
पर्यावरण भी स्वच्छ बनाओ, मन को स्वच्छ बनाते चलो.
तनाव तो कम नहीं हुआ, तेल के दाम कम हो गए,
आत्मिक चर्चा को अब, बहस के पंख लग गए,
कहां जाएं, किधर जाएं, कैसे जाएं, कोई बता दे हमें,
जिधर रुख किया, तंज़-ही-तंज़ के शिकंजे कस गए.
एक मुक्तक
नूतन वर्ष में अभिनव प्रयोग करके तो देखें,
नई विधा नई दिशा की ओर भी चलकर तो देखें,
जीवन बन जाएगा मंगलमय मधुमास,
नई युक्तियों को जरा अपनाकर तो देखें!
-लीला तिवानी