मुक्तक/दोहा

दोहे रमेश के बसंत पंचमी पर

मातु शारदे दीजिए, यही एक वरदान.
दोहों पर मेरे करे, जग सारा अभिमान..

मातु शारदे को सुमिर, दोहे रचूँ अनंत.
जीवन मे साहित्य का छाया रहे बसंत..

सरस्वती से हो गया, तब से रिश्ता खास.
बुरे वक्त में जब घिरा, लक्ष्मी रही न पास..

आई है ऋतु प्रेम की, आया है ऋतुराज.
बन बैठी है नायिका, सजधज कुदरत आज..

जिसको देखो कर रहा, हरियाली का अंत.
आँखें अपनी मूँद कर, रोये आज बसंत..

पुरवाई सँग झूमती, शाखें कर शृंगार.
लेती है अँगडाइयाँ, ज्यों अलबेली नार..

सर्दीगर्मी मिल गए, बदल गया परिवेश.
शीतल मंद सुगंध से, महके सभी “रमेश”..

ज्यों पतझड़ के बाद ही,आता सदा बसंत.
त्यों कष्टों के बाद ही,खुशियां मिलें अनंत..

हुआ नहाना ओस में, तेरा जब जब रात.
कोहरे में लिपटी मिली,तब तब सर्द प्रभात..

कन्याओं का भ्रूण में, कर देते हैं अंत.
उस घर में आता नही, जल्दी कभी बसंत..

बने शहर के शहर जब, कर जंगल काअंत ।
खिड़की में आये नजर, हमको आज बसंत॥

खिलने से पहले जहाँ, किया कली का अंत.
वहां कली हर पेड़ की, रोये देख बसंत..

फसलें दुल्हन बन गई,मन पुलकित उल्लास.
आशा की लेकर किरण, आया है मधुमास..

पिया गये परदेश है, आया है मधुमास.
दिल की दिल मे रह गये,मेरे सब अहसास..

— रमेश शर्मा

रमेश शर्मा

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